Monday, January 21, 2013

मरने के बाद क्या होता है ? marne ke baad kya hoga ?

'सुधिनामा' ब्लॉग पर साधना जी ने एक पोस्ट 
सिल्वरडीन एम्ब्लेम ओ’नील का अंतिम इच्छापत्र और वसीयतनामा
पेश की है . इसमें ओ'नील कहते हैं कि 

मरने के बाद क्या होता है यह कौन जानता है ?
यह बात केवल इश्वर जानता है और उसने अपने चुने हुए बन्दों के ज़रिये हर काल में इस बात का ज्ञान दिया है। लिहाज़ा यह कहना सही नहीं है कि 
मरने के बाद क्या होता है यह कौन जानता है ?

इस विषय पर विस्तार से यहाँ एक चर्चा देखी जा सकती है -

मरणोत्तर जीवन : तथ्य और सत्य



स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के नवम समुल्लास में आवागमनीय पुनर्जन्म की धारणा का प्रतिपादन करते हुए लिखा है, ‘‘पूर्व जन्म के पुण्य-पाप के अनुसार वर्तमान जन्म और वर्तमान तथा पूर्व जन्म के कर्मानुसार भविष्यत् जन्म होते हैं।’’ (9-73)
 इस विषय में लोगों ने स्वामी जी से कुछ प्रश्न भी किए हैं, जो निम्नवत् हैं :-
1. जन्म एक है या अनेक ? (9-67)
2. जन्म अनेक हैं तो पूर्व जन्म और मृत्यु की बातों का स्मरण क्यों नहीं रहता? (9-68)
3. मनुष्य और  पशु  आदि के शरीर  में जीव एक जैसा है या भिन्न-भिन्न जाति का? (9-74)
4. मनुष्य का जीव पशु  आदि  में और पशु  आदि का मनुष्य के  शरीर में आता जाता है या नहीं? (9-75)
5. मुक्ति एक जन्म में होती है या अनेक में ? (9-76)
स्वामी जी उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर निम्न प्रकार देते हैं ;-
1. जन्म अनेक हैं।
2. जीव अल्पज्ञ है, त्रिकालदर्शी नहीं, इसलिए पूर्व जन्म का स्मरण नहीं रहता।
3. मनुष्य व  पशु  आदि में जीव एक सा है।
4. पाप-पुण्य के अनुसार मनुष्य का जीव  पशु  आदि में और पशु  आदि का मनुष्य के शरीर में आता जाता है।
5. मुक्ति अनेक जन्मों में होती है।
मनुस्मृति के हवाले से स्वामी जी ने लिखा है ;-
‘‘स्थावराः कृमि कीटाश्च मत्स्याः सर्पाश्च कच्छपाः। पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसी गतिः।’’ (9-83)

भावार्थ ;- ‘‘जो अत्यंत तमोगुणी है वो स्थावर वृक्षादि, कृमि, कीट, मत्स्य, सप्र्प, कच्छप, पशु और मृग के जन्म को प्राप्त होते हैं।’’
वेदों के पुरोधा और शोधक महर्षि दयानंद ने अपनी पुस्तक ऋग्वेदादि भाष्य-भूमिका के पुनर्जन्म अध्याय में पुनर्जन्म के समर्थन में ऋग्वेद मंडल-10 के दो मंत्रों के साथ अथर्ववेद व यजुर्वेद के मंत्र भी प्रस्तुत किए हैं
1. ‘‘आ यो धर्माणि प्रथमः ससाद ततो वपूंषि कृणुषे पुरूणि।
धास्युर्योनि प्रथमः आ विवेशां यो वाचमनुदितां चिकेत’’।।
(अथर्व0 कां0-5, अनु0-1, मं0-2)
भाषार्थ ः ‘‘जो मनुष्य पूर्वजन्म में धर्माचरण करता है, उस धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीर को  धारण करता है और अधर्मात्मा मनुष्य नीच शरीर  को प्राप्त होता। जो पूर्वजन्म में किए हुए पाप पुण्य के फलों को भोग करके स्वभावयुक्त जीवात्मा है वह पूर्व  शरीर को छोड़कर वायु के साथ रहता है, पुनः जल, औषधि व प्राण आदि में प्रवेश करके वीर्य में प्रवेश करता है। तदनन्तर योनि अर्थात गर्भाशय में स्थिर होकर पुनः जन्म लेता है। जो जीव अनूदित वाणी अर्थात जैसी ईश्वर ने वेदों में सत्य भाषण करने की आज्ञा दी है, वैसा ही यथावत् जान के बोलता है, और धर्म ही में यथावत स्थित रहता है, वह मनुष्य योनि में उत्तम  शरीर धारण करके अनेक सुखों को भोगता है और जो अधर्माचरण करता है वह अनेक नीच  शरीर अथवा कीट, पतंग, पशु आदि के  शरीर को धारण करके अनेक दुखों को भोगता है।’’
2. ‘‘द्वे सतीऽ अशृणावं पितृणामहं देवानामुत मत्र्यानाम्।
ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं च।।’’
(यजु0 अ0-19, मं0-47)
भाषार्थ ः ‘‘इस संसार में हम दो प्रकार के जन्मों को सुनते हैं। एक मनुष्य  शरीर का धारण करना और दूसरा नीच गति से पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि का होना। इनमें मनुष्य  शरीर के तीन भेद हैं, एक पितृ अर्थात् ज्ञानी होना, दूसरा देव अर्थात् सब विधाओं को पढ़कर विद्वान होना, तीसरा मत्र्य अर्थात् साधारण मनुष्य का  शरीर धारण करना। इनमें प्रथम गति अर्थात् मनुष्य  शरीर पुण्यात्माओं और पुण्यपाप तुल्य वालों का होता है और दूसरा जो जीव अधिक पाप करते हैं उनके लिए है। इन्हीं भेदों से सब जगत् के जीव अपने-अपने पुण्य और पापों के फल भोग रहे हैं। जीवों को माता और पिता के  शरीर में प्रवेश करके जन्म धारण करना, पुनः  शरीर का छोड़ना, फिर जन्म को प्राप्त होना, बारंबार होता है।’’

यहाँ एक बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि कभी सृष्टि का प्रारम्भ तो अवश्य हुआ होगा, चाहे  वह करोड़ों साल पहले हुआ हो, सृष्टि के प्रारम्भ में मनुष्य के जन्म का सैद्धान्तिक आधार क्या था ? जैसा कि स्वामी जी ने लिखा है कि ‘‘प्रथम सृष्टि के आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन ऋषियों की आत्मा में एक-एक वेद का प्रकाश किया। (7-86) आगे क्रम सं0 88 में लिखा है कि वे ही चार सब जीवों से अधिक पवित्रात्मा थे, अन्य कोई उनके सदृश नहीं था।यहाँ सवाल यह है कि सृष्टि के आदि में पूर्व पुण्य कहाँ से आया? इस सवाल का कोई तर्कपूर्ण और न्यायसंगत जवाब स्वामी जी ने अपने ग्रंथों में कहीं नहीं लिखा।
स्वामी जी ने स्वर्ग, नरक, पुनर्जन्म, परलोक चार शब्दो  की गलत और भ्रामक व्याख्या की है। नवम समुल्लास के क्रम सं0 79 में लिखा है कि सुख विशेष स्वर्ग और विषय तृष्णा में फंसकर दुःख विशेष भोग करना नरक कहलाता है। जो सांसारिक सुख है वह स्वर्ग और जो सांसारिक दुःख है वह नरक है। जबकि वैदिक धारणा और शब्दकोष  के अनुसार स्वर्ग और नरक स्थान विशेष का नाम है। कृपया ये देखे http://islamhinduism.com/hinduism/analysis/51-vedic-paradise-an-overview  और http://islamhinduism.com/hinduism/analysis/50-vedic-paradise-the-inside-story
इसी प्रकार पुनः का अर्थ दोबारा है न कि बार-बार। जैसे पुनर्विवाह, पुनर्निर्माण वैसे ही पुनर्जन्म। चतुर्थ समुल्लास में स्वामी दयानंद ने मनुस्मृति के कुछ ‘लोकों द्वारा परलोक के सुख हेतु उपाय बताए हैं। यहाँ स्वामी जी ने परलोक और परजन्म दोनों को एक ही अर्थ में लिया है। (4-106) मनुस्मृति के जो ‘लोक उन्होंने उद्धरित किए हैं वे परलोक की सफलता पर केन्द्रित हैं न कि आवागमनीय पुनर्जन्म पर। स्वामी जी की धारणाओं और तथ्यों में प्रचुर विरोधाभास पाया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वेद विषयों पर स्वामी जी की जानकारी संदिग्ध थी।
मनुष्य चाहे जन्मना हिंदू हो, यहूदी हो, ईसाई हो या मुसलमान या अन्य किसी धर्म, मत व पंथ को मानने वाला हो, सबके जीवन का मूल स्रोत एक ही है। सब एक माँ-बाप की संतान हैं, सब परस्पर भाई-भाई हैं। यह तथ्य न केवल वेद और कुरआन सम्मत है बल्कि विज्ञान सम्मत भी है। इसके साथ एक सर्वमान्य तथ्य यह भी है कि मनुष्य चाहे एक हजार साल जिन्दा रहे, उसकी मृत्यु सुनिश्चित है। मृत्यु जीवन की अनिवार्य नियति है। इस नियति से जुड़ा है मानव जीवन का एक बड़ा अहम सवाल कि हमें मृत्युपरांत कहाँ जाना है ? मृत्युपरांत हमारा क्या होगा ? इस एक अहम सवाल से जुड़ी है हमारे जीवन की सारी आध्यात्मिकता (Spirituality) और सर्वांग सम्पूर्णता। आइए इस अहम विषय पर एक तथ्यपरक दृष्टि डालते हैं।
जड़वादियों (Materialist) का मानना है कि यहीं आदि है और यही अंत है। Death is the end of life ‘‘भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।’’ देह भस्म हो गया फिर आना-जाना कहाँ ? अनीश्वरवादी  (Atheist) महात्मा गौतम बुद्ध ने कहा, ‘‘भला करो, भले बनो, मृत्युपरांत क्या होगा यह प्रश्न असंगत है, अव्याकृत है।’’ हिंदूवादियों (Polytheist) का मानना है कि वनस्पति, पशु-पक्षी और मनुष्यादि में जीव (Soul)  एक सा है और कर्मानुसार यह जीव  (Soul) वनस्पति योनि, पशु योनि और मनुष्य योनि में विचरण करता रहता है। जीवन-मरण की यह अनवरत श्रंखला है। रामचरितमानस के लेखक गोस्वामी तुलसीदास के मतानुसार कुल चैरासी लाख योनियों में 27 लाख स्थावर, 9 लाख जलचर, 11 लाख पक्षी, 4 लाख जानवर और 23 लाख मानव योनियाँ हैं। हिंदू धर्मदर्शन के मनीषियों ने इस अवधारणा को आवागमनीय पुनर्जन्म का नाम दिया है।
इस अवधारणा (Cycle of Birth & Death) के संदर्भ में हिंदू धर्मदर्शन के चिंतकों का एक मजबूत तीर व तर्क है कि संसार में कोई प्राणी अंधा जन्मता है, कोई गूंगा और लंगड़ा जन्मता है। कोई प्रतिभाशाली तो कोई निपट मूर्ख जन्मता है। यहाँ कोई खूबसूरत है, कोई बदसूरत है। कोई निर्धन है तो कोई धनवान है। कोई हिंदू जन्मता है तो कोई मुसलमान जन्मता है। कोई ऊँची जात है तो कोई नीची जात है। जन्म के प्रारम्भ में ही उक्त विषमताएं पिछले जन्म का फल नहीं तो और क्या हैं ? इसी धारणा के साथ हिंदू मनीषियों की यह भी मान्यता है कि मनुष्य योनि पूर्व जन्म के अच्छे कर्मो  से मिलती है। ‘‘बड़े भाग मानुष तनु पाया’’। यहाँ हिंदू चिंतकों के उक्त दोनों तथ्यों में असंगति स्पष्ट प्रतीत होती है।
अगर यह मान लिया जाए कि यहाँ की सभी विषमताएं पूर्वकृत कर्मो  का लेखा है। एक मनुष्य दूसरे को इसलिए मार रहा है कि उसने पिछले जन्म में उसे मारा है। एक मनुष्य यहाँ इसलिए जुल्म कर रहा है कि पिछले जन्म में उस पर जुल्म किया गया है। फिर तो यह एक युक्तियुक्त स्थिति है। अगर यह मान्यता सत्य है फिर तो मामला सस्ते में ही निपट जाता है। फिर तो इस विषमता को दूर करने के सारे प्रयास न केवल बेकार हैं बल्कि प्रयास करना ही बेवकूफी है। यहाँ जो हो रहा है सब कुछ तर्कसंगत और न्यायसंगत है। लूटमार, मारकाट, अनाचार, अत्याचार यदि सभी कुछ पूर्व कर्मो  का फल है तो फिर न कोई पाप-पुण्य का आधार बनता है न ही सही-गलत बाकी रहता है। यहाँ यह विचारणीय है कि यदि मनुष्य योनि पूर्व जन्म के अच्छे कर्मो  से मिलती है तो फिर कोई जन्म से अंधा, बहरा, लंगड़ा और जड़बुद्धि क्यों ? दूसरा विचारणीय तथ्य है कि यदि इस जन्म की अपंगता पिछली योनि के कर्मो का फल है तो न्याय की मांग है कि दण्डित व्यक्ति को यह जानकारी होनी चाहिए कि उसने पूर्वजन्म में किस योनि में क्या पाप व दुष्कर्म किया है जिसके कारण उसे यह सजा मिली है ताकि सुधार की सम्भावना बनी रहे। अगर अपंग व्यक्ति को पूर्व योनि में किए दुष्कर्म और पापकर्म का पता नहीं है और सत्य भी यही है कि उसे कुछ पता नहीं है तो क्या आवागमनीय पुनर्जन्म की धारणा पूर्णतया भ्रामक और कतई मिथ्या नहीं हो जाती ?
आज अध्यात्म को छोड़ हम अधिभूत में डूबते जा रहे हैं। एक तरफ नैतिक पतन की पराकाष्ठा, अनाचार, अत्याचार, बिगाड़ बढ़ता जा रहा है, दूसरी तरफ उत्तम और दुर्लभ मनुष्य योनि  (Population) बढ़ती जा रही है। किस तरह समझें इस पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को ? विज्ञान इस तथ्य की तह तक पहुंच गया है कि इस सृष्टि का आदि भी है और अंत भी है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार सृष्टि का प्रारम्भ एक महाविस्फोटक  से हुआ और अंत भी इसी प्रकार होगा। फिर जन्म-मरण की अनवरत श्रंखला को कैसे सत्य माना जा सकता है ?
आवागमनीय पुनर्जन्म की अवधारणा का तीन तत्वः जीवन तत्व  (Life) चेतन तत्व (Consciousness) और आत्म तत्व (Soul) के आधार पर वैज्ञानिक विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि वनस्पतियों में केवल जीवन तत्व  (Life) होता है, चेतन तत्व (Consciousness) और आत्म तत्व  (Soul) नहीं होता। यदि वनस्पतियों में भी वही चेतन तत्व (Consciousness) होता जो पशु-पक्षियों में होता है, तो फिर वनस्पतियों का भक्षण भी उसी प्रकार पाप व अपराध होता जिस प्रकार तथाकथित पुनर्जन्मवादी पशु-पक्षियों का मांस खाने में मानते हैं। अब यदि जीव-जन्तुओं और पशु-पक्षियों में भी वही चेतन तत्व (Consciousness) और आत्म तत्व (Soul) होता जो मनुष्य में है तो पशु-पक्षियों को मारना भी उतना ही पाप व अपराध होता जितना मनुष्यों को मारने में होता है। पेड़-पौधों और पशुओं में वह चेतन तत्व व आत्म तत्व नहीं होता जो कर्म कराता है और कर्मफल भोगने का कारण बनता है। वृक्ष-वनस्पति और पशुओं में केवल इनकमिंग सुविधा है जबकि मनुष्यों में इनकमिंग के साथ-साथ आउट गोइंग सुविधा भी है जिससे कर्म लेखा (Account of Deeds) तैयार होता है। मनुष्य इसलिए तो सर्वश्रेष्ठ प्राणी है कि परम तत्व (God) ने उसे विवेक  (Wisdom) और विचार (Thinking) प्रदान किया है जो किसी अन्य को नहीं किया है। जहाँ जीवन है वहाँ चेतना और आत्मा का होना अनिवार्य नहीं। आत्मा  (Soul) चेतना  (Consciousness) और प्रज्ञा (Knowledge) वहीं है जहाँ कर्म है। पशुओं में नींद, भूख, भय और मैथुन आदि दैहिक क्रियाएं( Physical Process) तो है मगर विवेक संबंधी क्रियाएं  (Ethical Process) नहीं है। मनुष्य आत्मा में ही ज्ञानत्व, कर्तृत्व और भौक्तृत्व ये तीनों निहित हैं। इसलिए वेद और कुरआन मनुष्य जाति के लिए है न कि पशु और वनस्पति जगत के लिए।
कीट-पतंगे और पशु पक्षी नैसर्गिक जीवन व्यतीत करते हैं। एक वृक्ष और एक पशु को यह विवेक नहीं दिया गया है कि वे इस विशाल ब्रह्मांड में अपने अस्तित्व का कारण तलाश करें। पशुओं के सामने न कोई अतीत होता है न कोई भविष्य। भय, भूख, नींद, मैथुन आदि क्रियाओं के होते हुए भी पशु एक बेफिक्र रचना  है, चेतनाहीन कृति है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी तो मनुष्य जीवन की सामग्री मात्र है। इनकी रचना को मनुष्य योनि के पाप-पुण्य से जोड़ना नादानी की बात है।
देखने और सुनने की क्षमता के बावजूद एक बकरी कसाई और चरवाहे में फ़र्क नहीं करती। देखने और सुनने की क्षमता के बावजूद एक गाय मालिक और दुश्मन के खेत में अंतर नहीं करती। इससे सुस्पष्ट है कि पश्वादि में आत्मचेतना  नहीं होती। विवेक  और विचार  नहीं होता। जब पश्वादि में न विवेक है, न विचार है, न कोई आचार संहिता  है तो फिर कर्म और कर्मफल कैसा ? विचित्र विडंबना है कि हिंदू धर्म दर्शन ने पेड़-पौधों, पशुओं और मनुष्य को एक ही श्रेणी में रखा है। क्या यह अवधारणा तर्कसंगत और न्यायसंगत हो सकती है कि एक योनि चिंतन  और चेतना  रखने के बावजूद चिंतनहीन  और चेतना विहीन  योनि में अपने कर्मो  का फल भोगे ? कैसी अजीब धारणा है कि पाप कर्म करें मनुष्य और फल भोगे गधा और विवेकहीन वृक्ष?
यहाँ यह भी विचारणीय है कि दण्ड और पुरस्कार का सीधा संबंध विवेक, विचार और कर्म से है। दूसरी बात बिना पेशी, बिना गवाह, बिना सबूत, बिना प्रतिवादी कैसी अदालत, कैसा न्याय ? एक व्यक्ति को बिना किसी चार्जशीट के अंधा, लंगड़ा, जड़बुद्धि बना दिया जाए या कीट, कृमि, कुत्ता बना दिया जाए या पशु को मनुष्य बना दिया जाए, यह कैसा इंसाफ, कैसा कानून ? क्या इसे कोई कानून कहा जा सकता है ? न्यायसंगत और तर्कसंगत तो यह है कि फल भोगने वाले को सजा या पारितोष का एहसास हो और यह तभी सम्भव है कि जब कर्म करने वाला उसी शरीर  व चेतना के साथ फल भोगे, जिस शरीर  व चेतना के साथ उसने कर्म किया है।
उपर्युक्त तथ्यों और तर्को  से सिद्ध हो जाता है कि आवागमनीय पुनर्जन्म की धारणा एक अबौद्धिक और अवैज्ञानिक धारणा है। इस मिथ्या व कपोल-कल्पित मान्यता ने करोड़ों मनुष्यों को जीवन के मूल उद्देश्य से भटका दिया है। यह धारणा मनुष्य जीवन का कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं करती। मनुष्य के सामने कोई उच्च लक्ष्य न हो, कोई दिशा न हो तो वह जाएगा कहाँ ? विचित्र विडंबना है कि जीवन है मगर कोई जीवनोद्देश्य नहीं है। बिना किसी जीवनोद्देश्य के साधना और साधन सब व्यर्थ हो जाता है। यात्रा में हमारे पास कितनी भी सुख-सुविधा, सामग्री, साधन हो, मगर यह पता न हो कि जाना कहाँ है ? हमारी दिशा, हमारी मंजिल, हमारा गंतव्य क्या है तो हम जाएंगे कहाँ ? दिशा और गंतव्य निश्चित हो तभी तो गंतव्य की दिशा की तरफ चला जा सकता है। अगर दिशा का भ्रम हो तो मनुष्य कभी सही दिशा की तरफ नहीं बढ़ सकता। एक व्यक्ति दौड़ा जा रहा है और उसे पता न हो कि किधर और कहाँ जाना है तो क्या लोग उसे बेवकूफ नहीं कहेंगे?
हमारे जीवन में भौतिक कारणों, अकारणों का बड़ा महत्व है। यहाँ किसी का विकलांग, निर्धन, रोगी अथवा स्वस्थ, सुन्दर और धनी होना पिछले कर्मो का प्रतिफल नहीं है। यह विषमता भौतिक, प्राकृतिक और सामाजिक असंतुलन का परिणाम है। कभी चेचक व पोलियों आदि बीमारियों को मनुष्य का भाग्य और पूर्वजन्म का फल समझा जाता था मगर आज वैज्ञानिक प्रयोगों और प्रयासों द्वारा मनुष्य ने इन पर विजय प्राप्त कर ली है। यहाँ के परिणाम किसी पूर्वकृत योनियों के सत्कर्म या पाप कर्म के परिणाम नहीं हैं। यहाँ की विषमता को समझने के लिए हमें सृष्टिकर्ता की योजना  को भी समझना होगा।
ब्रह्मांड की विशालता, एक सूत्रता और दिन-रात का प्रत्यावर्तन बता रहा है कि यह सृष्टि किसी तीर-तुक्के की परिणति नहीं है, इसमें स्रष्टा का कोई उच्च प्रयोजन छिपा है। हम इहलोक में देखते हैं कि अक्सर बेइमान, स्वार्थी, धूर्त लोग फल फूल रहे हैं, ईमानदार, गरीब, श्रमजीवी लोग पिस रहे हैं। दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों का फूलना-फलना न्याय और नीति की बात नहीं हो सकती। कुकृत्यों की परिणति सुखदायी कभी नहीं हो सकती। अतः स्पष्ट है कि कुकृत्यों के परिणाम यहाँ प्रकट नहीं हो रहे हैं। न्याय और प्रतिहार के लिए यह संसार अपूर्ण है। बुद्धि की मांग है कि कोई ऐसी जगह  हो जहाँ दुष्कर्मी और अत्याचारी व्यक्ति के कर्मों का पूर्ण विवरण मय गवाह व सबूतों के प्रस्तुत हो और पीड़ित व्यक्ति अपनी आंखों के सामने उसे दण्ड और सजा भोगते देखें। वर्तमान लोक में ऐसी न्याय व्यवस्था  की कतई कोई सम्भावना नहीं है। अतः पूर्ण और निष्पक्ष न्याय के लिए आवश्यक है कि जब सम्पूर्ण मानवता का कृत्य समाप्त हो जाए तो एक नई दुनिया में हमारा पुनर्जन्म  हो अथवा हमें पुनर्जीवन प्राप्त हो। हिंदू मनीषियों ने पुनर्जन्म  को गलत अर्थों में परिभाषित किया है। पुनर्जन्म शब्द  का अर्थ बार-बार जन्म लेने से कदापि नहीं है। पुनर्जन्म शब्द का अर्थ एक बार न्याय के दिन  जन्म लेने से है। हिंदू धर्म ग्रंथों में प्रलय, पितर लोक, परलोक, स्वर्ग, नरक आदि शब्दो  का बार-बार प्रयोग उक्त तथ्य की पुष्टि करता है।
यह जगत एक क्रियाकलाप  है। तैयारी  है, एक दिव्य जीवन के लिए, पारलौकिक जीवन के लिए। सांसारिक अभ्युद्य मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है। लक्ष्य है पारलौकिक जीवन की सफलता। भौतिक सुख-सुविधा सामग्री केवल जरूरत मात्र है। यहाँ जब हम वह कुछ हासिल कर लेते हैं जो हम चाहते हैं, तो हमारे मरने का वक्त करीब आ चुका होता है। हम बिना किसी निर्णय, न्याय, परिणाम के यहाँ से विदा हो जाते हैं। धन, दौलत, बच्चें आदि सब यही रह जाता है। अगर हम यह मानते हैं कि जो कर्म हमने यहाँ किए हैं, उनके परिणाम स्वरूप हम जीव-जन्तु, पेड़- पौधा या मनुष्य बनकर पुनः इहलोक में आ जाएंगे तो यह एक आत्मवंचना (Self Deception) है। हमें इस धारणा की युक्ति-युक्तता पर गहन और गम्भीर चिंतन करना चाहिए। पारलौकिक जीवन की सफलता मानव जीवन का अभीष्ट (Desired) है। यही है मूल वैदिक और कुरआनी अवधारणा और साथ-साथ बौद्धिक और वैज्ञानिक भी। 
http://www.islamhinduism.com/hinduism/hindi-articles-hinduism/104-2011-05-18-10-38-19

Thursday, July 26, 2012

टीम अन्ना का भव्य अनशन और उसके साइड इफ़ेक्ट Anna Hajare



यह सही है कि केजरीवाल टीम के बारे में बात करना सिर्फ समय बर्बाद करना है, लेकिन दिल्ली में जो माहौल है, उसमें जरूरी हो गया है कि कुछ बातें कर ली जाए। 
शुरू में जरूर लगा कि अन्ना आंदोलन बड़े ताकतवर तरीके से उठा है, लेकिन लगातार आंतरिक मतभेदों और विवादों ने इसकी छवि को काफी धक्का पहुंचाया है। बेशक टीम अन्ना कहे कि सब कुछ ठीक है, लेकिन इनसे यह सवाल पूछा जाता रहेगा कि बिना ‘हेल्दी इंटरनल डेमोक्रेसी’ के आप देश के लोकतंत्र की कमियां दूर करने की बात कैसे कर सकते हैं? इस टीम के कई अहम सदस्य बीते कुछ महीनों में इसे छोड़ चुके हैं। अगर वे गलत थे, तो आपने उन्हें आंदोलन में साथ क्यों लिया? अगर ऐसा नहीं है, तो क्या आंदोलन किसी एक या दो लोगों की मर्जी का गुलाम तो बनने नहीं जा रहा? टीम अन्ना के मौजूदा और पूर्व सदस्यों से बात करने पर एक बात तो साफ होती है कि टीम में सहमति और तालमेल का भारी अभाव है, जो किसी लक्ष्य को पाने में बड़ी बाधा साबित हो सकता है। बहुत से ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर चर्चा जरूरी है, क्योंकि लोकतंत्र में जो काम हमारी राजनीतिक पार्टियों को करना था, वे कर न सकीं। देश ने उन्हें छह दशक से ज्यादा का समय दिया, जो काफी है।
ऐसे में टीम अन्ना की अगुआई में इन मुद्दों को उठाया और लागू कराया जा सकता है। पर सवाल यह है कि क्या अन्ना भ्रष्टाचार के मुद्दे की जड़ को काट पायेंगे ?
भ्रष्टाचार सदाचार का विपरीत है. 
जब तक लोगों में सदाचार की तमन्ना नहीं जागेगी तब तक अनशन करने से सरकार को तो परेशान किया जा सकता है लेकिन भ्रष्टाचार को नहीं मिटाया जा सकता है.
अनशन का रास्ता आत्महत्या और अराजकता का रास्ता है. इस तरह अगर सरकार अन्ना के क़ानून को बिना किसी विश्लेषण और सुधार के मान लेती है तो यह भी ग़लत है और अगर अन्ना अपना अनशन तोड़ते हैं, जैसा कि अनशन करने की घोषणा वह कर चुके हैं, तो उस से जनता में मायूसी फैलेगी और अगर वह अनशन नहीं तोड़ते और वह चल बसे तो देश में भारी अराजकता फैल जायेगी.
तीनों मार्ग देश को ग़लत अंजाम की तरफ़ ले जा रहे हैं. 
अनशन और आत्महत्या बहरहाल ग़लत है.
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र श्रीवास्तव जी  अपने ब्लॉग 'आधा सच' पर लिखते हैं -
केजरीवाल की जो भाषा है, उसका भगवान ही मालिक है। कई बार तो उनकी बात से ऐसा लगता है कि जैसे उन्होंने किसी से बयाना ले लिया है कि वो सरकार की ऐसी तैसी कर देंगे, लेकिन जब वो इसमें नाकाम रहते हैं तो अभद्र और अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल करते हैं। टीम अन्ना बड़ी बड़ी बातें करती हैं, लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि अनशन के लिए करोंड़ो रुपये फूंकने की क्या जरूरत है ? अनशन तो जंतर मंतर पर एक दरी बिछा कर भी की जा सकती है, फिर ये फाइव स्टार तैयारी क्यों की जाती है ?आप नहीं समझ सकते, क्योंकि ये आपका विषय नहीं है। आपको याद होगा कि यही टीवी चैनलों ने गुजरात के मुख्यमंत्री के सद्भावना उपवास का मजाक बनाया था और कहा कि ये फाइव स्टार उपवास दिखावटी है, तो उनकी नजर इस अनशन पर क्यों नहीं है? क्या ये दोहरा मापदंड नहीं है ? 

Thursday, June 14, 2012

सारी समस्याओं का समाधान पार्ट 1 Solution for every problem


हमारे सामने आज बहुत सी समस्याएं हैं। हरेक समस्या एक आंदोलन की ज़रूरत बताती है। जिन समस्याओं के लिए आज आंदोलन चलाने की ज़रूरत है। उनकी लिस्ट बनाई जाए तो वह लिस्ट इतनी लंबी हो जाती है कि उसे पढ़ना ही मुश्किल हो जाता है। देखिए एक लिस्ट, जो हमने बनाई है। इसमें आप भी कुछ समस्याओं की ओर ध्यान दिला सकते हैं, जिनके लिए हमें आंदोलन ज़रूरत है।
http://powerfulislamicquotes.tumblr.com/

1.युवा पीढ़ी नशे  की शिकार हो चुकी है। युवा पीढ़ी को नशा  खोखला कर रहा है। हमें अपने नौजवानों को नशे से बचाना होगा। इसके लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
2.नौजवान लड़के लड़कियां मर्यादा भंग कर रहे हैं, बिना विवाह किए ही ‘रिलेशनशिप‘ में पति पत्नी की तरह रह रहे हैं। नैतिकता की रक्षा के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
3.लड़के लड़कियां प्रेम कर रहे हैं। प्रेमी युगल मारे जा रहे हैं। जातिवादी अहंकार से प्रेमी युगलों की रक्षा के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
4.प्रेम का झांसा देकर लड़कियों को उनके घरों से भगा कर लाया जाता है और फिर देश विदेश में जिस्म फ़रोषी के धंधे में धकेल दिया जाता है। गर्म गोश्त  के व्यापार को रोकने के लिए हमें एक आंदोलन चलाने की ज़रूरत है।
5.वेश्याएं  भी इंसान हैं। वे तरह तरह की बीमारियों से जूझ रही हैं। उनके बच्चे शिक्षा  से वंचित हैं। वेश्याओं के कल्याण और पुनर्वास के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
6.बच्चे घरों में हिंसा और यौन उत्पीड़न के शिकार हैं। बस्तों के भारी बोझ ने उनसे उनका बचपन ही छीन लिया है। बच्चों की मासूमियत की रक्षा के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
6.दहेज के कारण कितनी ही लड़कियां घर पर ही बैठी रह जाती हैं। कितनी बहुएं दहेज के कारण मार दी जाती हैं और बहुत सी बहुओं को तरह तरह से सताया जाता है। दहेज एक सामाजिक अभिशाप है। दहेज के विरूद्ध एक आन्दोलन चलाए जाने की ज़रूरत है।
7.विधवाओं को भी समाज में बहुत अपमान झेलना पड़ता है। उनके कल्याण के लिए भी हमें एक आन्दोलन चलाने की ज़रूरत है।
8.बूढ़े लोग अपने ही बच्चों की उपेक्षा और तिरस्कार झेल रहे हैं। उनके लिए हमें एक आन्दोलन चलाने की ज़रूरत है।
9.बलात्कार के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं। इस जुर्म के मुजरिमों को फांसी की सज़ा मिलनी चाहिए। इसके लिए हमें एक आन्दोलन चलाने की ज़रूरत है।
10.गुमशुदा बच्चों और बड़ों की तादाद बढ़ती ही जा रही है। मानव अंगों की तस्करी करने वाले भी सक्रिय हैं। इसके ख़ात्मे के लिए भी हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
11.क्राइम का ग्राफ़ बढ़ता ही जा रहा है। इसके ख़ात्मे के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
12.पेट्रोल-डीज़ल के दाम बढ़ रहे हैं। इसके खि़लाफ़ हमें  एक आन्दोलन चलाने की ज़रूरत है।
13.महंगाई बढ़ रही है। लोगों का जीना मुश्किल हो रहा है। इसके लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
14.मंत्री और अफ़सर भ्रष्ट हो गए हैं। वे रिश्वत लेकर काम करते हैं। हमें भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ एक आन्दोलन चलाना होगा।
15.देश का धन विदेशों में जमा है। उसे देश में वापस लाने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
16. देश का धन विदेशी बैंकों से कई गुना ज़्यादा धर्म स्थलों में जमा है। वह जनता के कल्याण में लगाया जाए, इसके लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
17.बेरोज़गारों को बेरोज़गारी भत्ता दिया जाए। इसके लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
18.डाक्टर कमीशन लेकर एक विशेष  कंपनी की ग़ैर ज़रूरी टेस्ट और दवाईयां लिखते हैं। बेवजह आप्रेशन  तक कर देते हैं। इसके खि़लाफ़ हमें आंदोलन चलाना होगा।
19.लेस्बियन और समलैंगिक प्रवृत्ति भी उभर रही है। लड़की के साथ लड़की और लड़के के साथ लड़का संबंध बना रहे हैं और वे क़ानूनी रूप से इसकी मान्यता चाहते हैं। इसे रोकने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
20.अवैध संबंध और गर्भपात के आंकड़े तेज़ी से बढ़ रहे हैं।
21. दहेज के कारण भ्रूण हत्या की जा रही है और बहुत सी जगहों पर पैदाइश के बाद लड़की को मार दिया जाता है। इसके खि़लाफ़ हमें एक आन्दोलन चलाने की ज़रूरत है।
22.लड़के के मुक़ाबले लड़की की उपेक्षा की जाती है। तरक्क़ी के अवसर भी उसे कम ही नसीब होते हैं। इसके खि़लाफ़ हमें एक आन्दोलन की ज़रूरत है। 
23.जाति, संप्रदाय और इलाक़े को लेकर भी लोगों के दिलों में नफ़रत बैठी हुई है। जिसकी वजह से दंगे होते हैं और जान व माल की ज़बर्दस्त तबाही होती है। इसके ख़ात्मे के लिए भी हमें एक आंदोलन चलाना होगा।
24.धर्म और अध्यात्म के नाम पर दुकानदारी और पाखंड फैल रहा है। इसे रोकने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
25.ग़रीब की ग़रीबी बढ़ रही है जबकि अमीर और ज़्यादा अमीर हो रहा है। समाज में आर्थिक असंतुलन को दूर करने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
26.नक्सलवाद एक बड़ी समस्या है। नक्सलवाद और आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
27.युवा पीढ़ी चुनाव प्रक्रिया में भाग ले। इसके लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
28.देश के युवाओं में देशप्रेम का जज़्बा कम हो रहा है। इसे बढ़ाने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
29.सैनिकों के लिए सम्मान का भाव कम हो रहा है। इसके लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
30.ओज़ोन की परत में छेद हो रहा है। ओज़ोन की परत को बचाने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
31.जंगल और हरियाली कम हो रही है। वर्षा चक्र बिगड़ रहा है। वृक्षारोपण के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
32.बहुत से जीवों की प्रजातियां जंगल में लुप्त हो चुकी हैं और बहुत सी प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं। उन्हें बचाने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
33.तेल और खनिज पर क़ब्ज़ा जमाने के लिए कुछ देश विश्व शांति से खेल रहे हैं। उन्हें रोकने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
34.लोगों में धर्म और अध्यात्म के प्रति रूचि कम हो रही है। इसके लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
35.ड्रेस में नंगापन और अश्लीलता बढ़ती जा रही है। इसे रोकने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
36.आज एक पड़ोसी को अपने पड़ोसी की भी ख़बर नहीं है। कोई कोई तो कई दिनों तक मरा पड़ा रहता है। उसके शव से बदबू आती है तो लोग पुलिस बुलाते हैं। वे पुलिस तक को नहीं बता पाते कि मरने वाला क्या काम करता था ?
इसके लिए भी हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
37.मां का दूध शिशु के लिए अमृत है। मांओं को जागरूक करने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
38.फ़िल्मों में हिंसा और अश्लीलता की कोई हद नहीं है। साफ़ सुथरी फ़िल्मों के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा। 
39.ग़रीब किसान और मज़दूर सूदी क़र्ज़ के न चुका पाने के कारण आत्महत्या कर रहे हैं। उनका जीवन बचाने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
40.आजकल नौजवान ही नहीं बल्कि बच्चे भी ज़रा सी बात पर आपा खोकर हत्या और आत्महत्या कर रहे हैं। उनका जीवन बचाने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
41.शिक्षा एक व्यवसाय बन गया है। गुरू की मर्यादा अब बची ही नहीं है। शिक्षा के मंदिर केवल दुकानें बन कर रह गए हैं। इस हालत को बदलने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
42.चीज़ों में मिलावट एक आम बात है। इसे रोकने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
43.ज़्यादा दूध पाने के लिए दुधारू पशुओं को ऑक्सीटोसिन का इंजेक्शन दिया जा रहा है। इसे रोकने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
44.नक़ली दवाओं के खि़लाफ़ हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
45.रेलगाड़ी आए दिन दुर्घटना की शिकार हो रही हैं। टिकट लेकर भी सुविधाएं नहीं मिलती हैं। इसके लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
46.सड़कें ख़राब हैं। इसी वजह से एक्सीडेंट में लाखों लोग मारे जाते हैं। इसके लिए भी हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
47.बच्चा मज़दूरी एक अभिशाप है। इसे ख़त्म करने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
48.गांवों में रोज़गार न होने से लोग शहरों की तरफ़ रूख़ कर रहे हैं। इसे रोकने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
49.एड्स और यौन रोग फैल रहे हैं। इन्हें रोकने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
50.जल प्रदूषण बढ़ रहा है। इसे रोकने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
51.पानी की फ़िज़ूलख़र्ची रोकने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
52.बिजली का उत्पादन और आपूर्ति कम है जबकि हमारे पास पानी के स्रोत भरपूर हैं। इसके लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
53.शादी ब्याह के मौक़ों पर और अपने घरों में भी लोग बिजली की फ़िज़ूलख़र्ची करते हैं। इसे रोकने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
54.शादी ब्याह के मौक़ों पर और रोज़मर्रा के जीवन में लोग फ़िज़ूलख़र्ची करते हैं। अगर यही रूपया रचनात्मक कामों में ख़र्च किया जाए तो व्यक्ति और राष्ट्र की उन्नति होगी। जागरूकता के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
55.शादी ब्याह के मौक़ों पर अपनी शान दिखाने के लिए लोग फ़ायरिंग करते हैं। उसमें ब्याह बारात देखने वाले मारे जाते हैं। कुछ मौक़ों पर तो दूल्हा ही मारा गया। इस बेकार के दिखावे को रोकने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
56.समाज में ऊंचनीच और छूतछात मौजूद है, ख़ासकर देहाती इलाक़ों में इसका ज़ोर ज़्यादा है। इसके ख़ात्मे के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
57.गांवों में चिकित्सा सेवाएं नहीं हैं। सरकारी डाक्टर गांव में जाते ही नहीं हैं। चिकित्सा के अभाव में लोग मर रहे हैं। गांवों तक डाक्अर को लाने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
58.आवारा कुत्ते बच्चों पर हमला करके उन्हें मार रहे हैं। इनके ख़ात्मे के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
59.बंदरों की संख्या और उनका आतंक बढ़ता ही जा रहा है। लोगों ने करोड़ों रूपये ख़र्च करके अपने घरों पर जाल लगवा लिए हैं। लोग अपने घरों में क़ैद रहने के लिए मजबूर हैं। बंदरों के हमले में हर साल बहुत से लोग मारे जाते हैं। इस समस्या से मुक्ति के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
60.लोग दूध देने पशुओं को सड़कों पर खुला छोड़ देते हैं। ये पशु आने जाने वालों को सींग मार देते हैं और कभी इनके लिए इनके नर आपस में सड़क पर ही भिड़ जाते हैं। इनके कारण दुर्घटनाओं में लोगों की जान तक चली जाती है। इस समस्या से मुक्ति के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
61.गंगा में शहर के गंदे नाले और फ़ैक्ट्रियों का ज़हरीला पदार्थ घोलकर उसे गंदा और ज़हरीला बना दिया गया है। गंगा को बचाने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
62.जमना को बचाने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
63.हरेक नदी को बचाने के लिए हमें एक एक आन्दोलन चलाना होगा।
64.गांव में पहले पोखर-तालाब हुआ करते थे। जिसमें बारिश का पानी इकठ्ठा हो जाता था और वह संचित जल गांव भर के काम भी आता था और उससे जल स्तर भी बना रहता था। जब से लोगों ने उन सार्वजनिक तालाबों को क़ब्ज़ा करके उस पर निर्माण कर लिया है तब से जल स्तर नीचे होता जा रहा है। तालाबों का पुनरूद्धार करने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
65.हमारे नागरिकों को प्रोटीन और संतुलित आहार नहीं मिल पा रहा है। इससे उनका व्यक्तित्व बौना हो रहा है। नागरिकों में आहार संबंधी जागरूकता लाने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
66.गुटखा,तंबाकू और सॉफ़्ट ड्रिंक्स सेहत के लिए नुक्सानदेह हैं। लोग इनका इस्तेमाल करके बर्बाद हो रहे हैं। लोगों को जागरूक करने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
67.शुगर और ब्लड प्रेशर संबंधी बीमारियां प्रायः आधुनिक जीवन शैली की देन हैं। पहले रोज़मर्रा की ज़िंदगी में जिस्मानी मेहनत होती थी जो कि बीमारियों से बचाती थी। अब वह सब नहीं रहा और लोग व्यायाम भी नहीं करते। दिल, गुर्दे और पेट की बीमारियां महामारियों की तरह फैल रही हैं। इसकी रोकथाम के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
68.चीनी और नमक सफ़ेद ज़हर हैं। वैज्ञानिकों ने बताया है कि इनका निरंतर इस्तेमाल घातक है। लोगों को जागरूक करने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
69.बंधुआ मज़दूरी ख़त्म करने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
70.बात बात में धरने-प्रदर्शन और बंद के चलन ने भी ज़िंदगी को डिस्टर्ब कर दिया है। बंद के दौरान बहुत से मरीज़ों को अस्पताल तक ले जाना भी मुश्किल हो जाता है। बंद के दौरान हिंसा और आगजनी से भी करोड़ों रूपये का नुक्सान होता है। इसे रोकने लिए भी हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।

ज़रा सोचिए
इतनी सारी समस्याएं हैं और इन सबके लिए सैकड़ों आंदोलन चलाने की ज़रूरत है।
क्या कोई एक आदमी इन सभी आंदोलनों में हिस्सा ले सकता है ?
अगर इन समस्याओं के ख़ात्मे के लिए आंदोलन चलाना संभव नहीं है तो फिर इन सबसे मुक्ति कैसे संभव है ?

आप भी सोचिए और हम भी सोचते हैं। जहां चाह है, वहां कोई न कोई राह भी ज़रूर होगी। समस्याएं कितनी भी टेढ़ी क्यों न हों लेकिन कोई न कोई रास्ता ज़रूर होगा जो सीधा समाधान तक पहुंचाता होगा।
उस सीधे रास्ते की तलाश आज वक्त की सबसे बड़ी ज़रूरत है।
(...जारी)

Wednesday, March 28, 2012

ब्रहमा जी जैसी महान हस्ती को आज ऐतिहासिक शख्सियत के बजाय केवल एक मिथकीय पात्र मानकर उनकी महत्ता को घटाया क्यों जाता है ?

हिंदी ब्लॉगर्स ने चैत्र मास से आरंभ होने वाले नवसमवत्सर पर लेख लिखे। हमने भी इस विषय पर लेख लिखा।
चैत्र मास से आरंभ होने वाला यह कैलेंडर हिंदू वैज्ञानिकों ने दिया है। यह कौन सा तरीक़ा है कि देन से तो लाभ उठाया जाए और देने वाले को भुला दिया जाए ?
अक्सर ब्लॉगर्स ने यही किया है।
ऐसा करना हमें ठीक न लगा सो इस कैलेंडर के अविष्कारकों को भी याद किया गया है
तरीक़ा भी यही है कि जब आर्किमिडीज़,न्यूटन और आइन्सटीन आदि का नियम बताया जाता है तो पहले उनका नाम लिया जाता है, उनका नियम बाद में बताया जाता है ताकि याद रहे कि यह नियम हमें किस महान वैज्ञानिक ने बताया है ?
जिन लोगों ने ऐसा नहीं किया, उन्होंने हिंदू कैलेंडर के महान अविष्कारकों को भुला दिया है।
यही कारण है कि आज कोई भी नहीं बता सकता कि हिंदू कैलेंडर का अविष्कार कितने वर्ष पहले और किस ऋषि ने किया था और किन किन ऋषियों ने इसमें किस किस समय पर कितने बदलाव किए ?
दुख की बात यह है कि सब जगह नव सम्वतसर के अवसर पर ब्रह्मा जी का ज़िक्र किया जाता है लेकिन बताया जाता है विक्रम संवत। ब्रह्मा जी का सृष्टि संवत का ज़िक्र ग़ायब कर दिया जाता है।
ब्लॉग जगत की पोस्ट्स इसका उदाहरण है।
हम अब्राहम को याद करें और आप ब्रहमा जी को याद रखें तो इससे हमारे दिलों में हमारे पूर्वज की याद तो बनी रहेगी और तब किसी दिन पता चलेगा कि हमारा परमेश्वर ही नहीं हमारा पूर्वज भी एक ही है।
तब हिंदू, मुस्लिम, यहूदी और ईसाई शब्द पर्यायवाची बनकर रह जाएंगे।
Brahma और Abraham शब्द लिखकर गूगल सर्च के ज़रिये देखते हैं तो इस विषय पर अथाह जानकारी सामने आ जाती है।
ब्रहमा जी जैसी महान हस्ती को आज ऐतिहासिक शख्सियत के बजाय केवल एक मिथकीय पात्र मानकर उनकी महत्ता को घटाया क्यों जाता है ?
इस पर विचार करने की ज़रूरत है।
इस संबंध में यह लेख भी विचारणीय है-

अब्राहम के वंशज हैं भारत के ब्राह्मण

Reflections on the Descendants of Abraham
Parsha Chayei Sarah, 2006


To the sons of his concubines Abraham gave gifts, while he was still alive, and he sent them away from his son Isaac eastward, to the land of the East (Genesis 25:6)

The Zohar gives us an indication about the attraction and the danger of encountering the wisdom of the “children of the East”.  “Rabbi Abba said, ‘One day I happened upon a certain town formerly inhabited by children of the East, and they told me some of the wisdom they knew from ancient days.’” (1:99b)  The Zohar continues to quote R. Abba, “My children, this is close to words of Torah, but you should shun these books so that [100b] your hearts will not stray after these rites, toward all of those sides mentioned here; lest – Heaven forbid – you stray from the rite of the blessed Holy One!  For all these books deceive human beings, since Abraham, who bestowed it upon the sons of the concubines, as is written: To the sons of his concubines Abraham gave gifts, while he was still alive, and he sent them away from his son Isaac eastward, to the land of the East (Genesis 25:6)  Afterward they were drawn by that wisdom in various directions.  (Pritzker Edition. V.2, P. 123.

The relationship between the traditions of the East and the Jewish tradition seem to be hinted at by this reference to the children of Abraham’s wife, Keturah, whom he married after the death of Sarah.  The phonetic similarity between the word denoting the unity of all reality “Brahman” and the name “Abraham” seem to suggest a similar theme, especially since the accepted view is that the Vedic or Hindu tradition was brought to the Indian subcontinent from the West – Iran or West Asia – about 3,000 years ago.

Perhaps the words of Torah made their way East with these children of Abraham, just as most of the Jews spent two millennia living in the West.  In each environment the basic notions of Torah may have experienced certain drift, and I would like to review some basic concepts of Torah thought as they appear in the East and in the West, with the purpose of clarifying the essential Torah concepts. 

I would like to focus on three notions:  Olam, Ehad, and Shalom. 

The Hebrew word “olam” is translated as “forever”, or the “world”, as in “melech ha’olam” which could be translated as “ruler of the world”.  We also say in the Shema, “malchuto l’olam va’ed”,  which we usually translate as “His kindom is forever”.  However, the root from which the word olam derives is elam which means hidden or concealed. 

The Bahir, one of the primary sources of Jewish mystical thought, is traditionally ascribed to Rabbi Nehuniah ben HaKana, a Talmudic sage of the first century.  Although the text was not widely circulated, it was apparently known by some before the year 1000.  A history of the text can be found in the translation and commentary by Aryeh Kaplan, published in 1995.   The 10th numbered paragraph of the Bahir asks, “’What is the meaning of Me-Olam?’ This means that it must be concealed (He-elam) from the world.  It is thus written (Kohelet 3:11), “He has also placed the world (Ha’Olam) in their hearts [that they should not find out the work that God has done from the beginning to the end].”  In other words, the world is called “Olam” because there is something about the world that is essentially hidden. 

In the Vedic tradition, there is a similar concept called “Maya”.  The concept is similar to the idea that the world is essentially an illusion.  Maya is the veil that covers our real nature and the real nature of the world around us. Maya is fundamentally inscrutable: we don't know why it exists and we don't know when it began. What we do know is that, like any form of ignorance, maya ceases to exist at the dawn of knowledge, the knowledge of our own divine nature.

Here is the concept as expressed by Rabindranath Tagore in his collection of songs, Gitanjali:

That I should make much of myself and turn it on all sides,
thus casting colored shadows on thy radiance
---such is thy Maya.

Thou settest a barrier in thine own being
and then callest thy severed self in myriad notes.
This thy self-separation has taken body in me.

The poignant song is echoed through all the sky in many-colored tears
and smiles, alarms and hopes; waves rise up and sink again,
dreams break and form.
In me is thy own defeat of self.

This screen that thou hast raised is painted with innumerable figures
with the brush of the night and the day.
Behind it thy seat is woven in wondrous mysteries of curves,
casting away all barren lines of straightness.

The great pageant of thee and me has overspread the sky.
With the tune of thee and me all the air is vibrant,
and all ages pass with the hiding and seeking of thee and me.


            If this is what happened to the notion of Olam when it traveled eastward, what happened in the west?  Olam became either “world” or “eternity”.  “World” has the connotation of the entire creation, as God is the King of the entire created world, but it misses the sense of the inherent hiddenness of the Creator.  “King of the Universe” is easily said, easy to handle, but it misses some of the majesty of  “all ages pass with the hiding and seeking of thee and me.” 

Now let’s look at Ehad, the special kind of oneness that pertains to God.  

In the Vedic tradition, the concept of the essential oneness of the universe is given a very strong meaning.  This time I am going to quote from sources that I do not claim to grasp.  Nevertheless, I hope they will give a sense of the strong sense of unity that pervades the Eastern (Vedic) tradition:

“All fear and all misery arise from our sense of separation from the great cosmic unity, the web of being that enfolds us. ‘There is fear from the second,’ says the Brihadaranyaka Upanishad. Duality, our sense of separation from the rest of creation, is always a misperception since it implies that something exists other than God. There can be no other. ‘This grand preaching, the oneness of things, making us one with everything that exists, is the great lesson to learn,’ said Swami Vivekananda a century ago.

. . . . The Self is the essence of this universe, the essence of all souls . . . You are one with this universe. He who says he is different from others, even by a hair's breadth, immediately becomes miserable. Happiness belongs to him who knows this oneness, who knows he is one with this universe.”    http://www.vedanta.org/wiv/philosophy/oneness.html

In the strongest case, the Hindu or Vedic position asserts that everything, the Creator as well as creation is a unified Divine Ground called Brahman.  This position could be called Monism, and invites us to contemplate a unity from which there is no exception or alternative except for mere illusion.

In the West, the Torah of Oneness has taken a quite different path.  For some, Hashem Echad  seems to mean simply that there is only one god.  Some laud the Jewish tradition as being the pioneers of monotheism, the idea of one god.  However, this is a pale interpretation of the Oneness that is applied to HaShem, as is evident in the versification of Rambam’s attributes of G’d by Shlomo Ibn Gvirol, in the song we know as “Yigdal”.  Ehad v’ayn yahid k’yichudo, n’elam v’gam ayn sof l’achduto.   [G’d is] One and there is no Unity that resembles his Unity, it is hidden and there is no limit to his Oneness”.  This sounds closer to the Eastern elaboration than to mere monotheism. 

A second Western interpretation of G’d’s Unity is a kind of pantheism, the doctrine that for all practical purposes, G’d is merely the sum of all of creation including the rules by which it operates.  The unity of this god, is merely the unity inherent in the created world.

Another variation on a weakened Oneness is the Deist position.  Deism does away with the duality by neglecting the Creator, or at least His involvement with current events.  This has been an attractive position for Western rationalists, but a serious crippling of the notion of Oneness inherent in the traditional Torah view. 

The Oneness of the Torah tradition is not quite so absolute as the Vedic unity that subsumes all of existence into the Brahman Unity.  However, it is certainly much a much stronger sense of unity than mere monotheism, Pantheism or Deism usually suggests. 

As usual, the Torah view is comfortable with the paradox.  God is Unity, HaShem Ehad, and the Creator is distinct from His Creation.  Again, permit me to quote from Gitanjali because Tagore’s paradoxical dualism is so close to the Torah view:

When I bring to you colored toys, my child,
I understand why there is such a play of colors on clouds, on water,
and why flowers are painted in tints
---when I give colored toys to you, my child.
When I sing to make you dance
I truly now why there is music in leaves,
and why waves send their chorus of voices to the heart of the listening earth
---when I sing to make you dance.

When I bring sweet things to your greedy hands
I know why there is honey in the cup of the flowers
and why fruits are secretly filled with sweet juice
---when I bring sweet things to your greedy hands.

When I kiss your face to make you smile, my darling,
I surely understand what pleasure streams from the sky in morning light,
and what delight that is that is which the summer breeze brings to my body
---when I kiss you to make you smile.

The final concept that shows a divided path between East and West is the idea of shalom.  In English translation, shalom has been virtually equated to the English word “peace”.  However, this is an artifact of the westernizing of Torah concepts.  Of course, the long interlude of Jewish life in Christian Europe has brought even Hebrew speakers to think of shalom as meaning peace. 

However, if we look at the root words associated with shin-lamed-mem, they relate to a different family of concepts.  M’shalem means to pay or repay.  Shlemut means wholeness or completion.  Shalem means complete, full, entire or perfect.  In contrast, “peace” comes from the Latin “pax”, which shows up in English as “pact”, a truce between warring parties, and hence “peace”.  Peace is better translated into Hebrew as “shalva”, tranquility or quiet.  When shalom went West, it was misconstrued as peace. 

What happened when shalom went East?  It became a perfect sense of ethical payment, a kind of reliable mechanics of the moral universe, a cosmic “what goes around comes around”.  In the Vedic tradition, this equates to the concept of karma.  Shalom is karma, as simple as that. 

It is interesting to try to retranslate many of the familiar uses of shalom out of the Western bias, and through the more Eastern prism.  For example, oseh shalom b’mromav, who makes perfect repayment in his heights, may repayment be evident down here as well; sim shalom, tova, u’vracha, assign appropriate consequences, goodness and blessing.  The goal we seek in shalom is not comfortable tranquility, but a fairness in the realm of moral outcomes. 

The search for moral fairness de-emphasizes traits that are associated with divine intervention in the Christian and Islamic worldviews.  Jews are less pre-occupied with forgiveness, divine wiping away of our sins, or intervention by a powerful intermediary – such as Jesus or Mohammed.  The Torah suggests that creation is grounded in a robust moral physics, where punishment and reward are less fundamental than the actual consequences of our moral choices. 

There is an insightful commentary by the RAMBAN on Lech Lecha 15:2 where the text reads, “And Abram said, O Lord Eternal, what will you give me?”  Ramban comments, “It had not occurred to Abraham that this great reward would be in the World to Come for there is no necessity for such a promise; every servant of G’d will find life in the hereafter before him.”  (Chavel, Tr. p. 194).  The lesson seems to be that in the Torah view, it simply does not make sense to pray for a better outcome in the World to Come.  That is a mechanical, automatic result.  We get shalom, not peace (as the Western influence would lead us to believe), but perfect repayment.  In other words, the western influence on the notion of shalom has led to a notion that it would make sense to pray for a different outcome of our life than we deserve.  Is this not what has resulted in the elevation of the images of Jesus and Mohammed to the level of intermediaries with a god that can be influenced by such intervention.  This is a concept that is foreign to the Torah view.

All of this has an interesting corollary in the notion of the recycling of souls.  The notion of reincarnation is well established in the Hindu tradition.  For example, in the Badgavad Gita, Lord Krishna observes,

Just as the self advances through childhood, youth and old age in its physical body, so it advances to another body after death. The wise person is not confused by this change called death (2,13). Just as the body casts off worn out clothes and puts on new ones, so the infinite, immortal self casts off worn out bodies and enters into new ones (2,22).
In the Vedic or Hindu tradition, this notion of recycling of souls corresponds to the idea of “karma”,  a robust, reliable moral physics that tracks the course of the moral actor even beyond death. 
In contrast, both Christianity and Islam reject the idea of the recycling of souls.  In the New Testament, there are some passages that indicate that upon death there is a final judgment and eternal consequences. 

According to the New Testament, "It is appointed unto man once to die, and after that the judgment" (Hebrews 9:27). God's judgment is described in Revelation 21:8, "But the cowardly, unbelieving, abominable, murderers, sexually immoral, sorcerers, idolaters and all liars shall have their part in the lake which burns with fire and brimstone, which is the second death."

"And the smoke of their torment ascends forever and ever; and they have no rest, day or night, who worship the beast and its image, and whoever receives the mark of his name." (Revelation 14:11).

In Islam, passages from Koran and Hadith are similar, equally one dimensional and harsh.  The Talmud also has passages that suggest that the punishment for wrongdoing may be severe, but on the whole the concept is of a much more multi-dimensional moral calculus.

This view of one terrifying chance, which can only be mitigated by pleading with the intermediary, could be called the Western perspective; it permits no recycling of souls.  That would sound like a second chance, and undermine the reliance on the intermediary who has exclusive power to intervene and ask for a lighter sentence, or for a reversal of the judgment altogether.  In the Western traditions, the judgment that follows life is final, and the only way around an eternally bad outcome is to ask for the mercy of God and forgiveness of sins.

In the Vedic tradition, the other side of the coin of karma is the recycling of souls.  Karma entails a moral physics that governs the world; each person bears the consequences of his moral action. 

By the Middle Ages, especially in the more mystical texts, it was evident that the notion of recycled souls was compatible with the Jewish notion of justice in the created world.  Just outcomes are not always apparent within a person’s lifetime.  The Torah notion of afterlife, including the recycling of souls, is only implied in the written text of the Torah.  The notion of a perfect system of justice is elaborated in the Talmud, and the notion of recycled souls is spelled out in the writings of Isaac Luria and in the Zohar.

These three concepts – Olam, Ehad and Shalom show us that it may be important for us to carefully redeem from the East some of the wisdom that was sent by Abraham with the children of Ketura, the wife he took after the death of Sarah.  The Torah concepts may not be identical with the concepts of the Vedas and the Unpanishads, the Badgavad Gita or even Gitanjali.  However, looking at the worldview of the East may save us from thinking that Olam is merely the universe, that Ehad means that we have only one God, and that Shalom means that we are primarily concerned with our search for peace.

Thank you.
Bruce Heitler 

Monday, January 9, 2012

इस्लाम आ चुका है आपके जीवन में Islam means

एक हिंदू भाई ने घोषित कर दिया कि इस्लाम हिंदू धर्म की छाया प्रति है।
आज कहना सबके लिए आसान हो गया है। इसीलिए कोई कुछ भी कह सकता है।
अगर कुछ साधारण सी बातों पर भी विचार कर लिया जाए तो उन्हें अपनी ग़लती आसानी से समझ में आ सकती है और अगर वे न समझें तब भी कम से कम दूसरों की समझ में तो आ ही जाएगी।

1. हिंदू धर्म की कोई एक सर्वमान्य परिभाषा आज तक तय नहीं है जबकि इस्लाम की परिभाषा तय है।
2. हिंदू भाई बहनों के लिए कर्तव्य और अकर्तव्य कुछ भी निश्चित नहीं है। एक आदमी अंडा तक नहीं छूता और अघोरी इंसान की लाश खाते हैं जबकि दोनों ही हिंदू हैं।
जबकि एक मुसलमान के लिए भोजन में हलाल हराम निश्चित है।
3. हिंदू मर्द औरत के लिए यह निश्चित नहीं है कि वे अपने शरीर को कितना ढकें ?, एक अपना शरीर ढकता है और दूसरा पूरा नंगा ही घूमता है।
जबकि मुस्लिम मर्द औरत के लिए यह निश्चित है कि वे अपने शरीर का कितना अंग ढकें ?
4. हिंदू के लिए उपासना करना अनिवार्य नहीं है बल्कि ईश्वर के अस्तित्व को नकारने के बाद भी लोग हिंदू कहलाते हैं।
जबकि मुसलमान के लिए इबादत करना अनिवार्य है और ईश्वर का इन्कार करने के बाद उसे वह मुस्लिम नहीं रह जाता।
5. केरल के हिंदू मंदिरों में आज भी देवदासियां रखी जाती हैं और औरतों द्वारा नाच गाना तो ख़ैर देश भर के हिंदू मंदिरों में होता है। इसे ईश्वर का समीप पहुंचने का माध्यम माना जाता है।
जबकि मस्जिदों में औरतों का तो क्या मर्दों का भी नाचना गाना गुनाह और हराम है और इसे ईश्वर से दूर करने वाला माना जाता है।
6. हिंदू धर्म ब्याज लेने से नहीं रोकता जिसकी वजह से आज ग़रीब किसान मज़दूर लाखों की तादाद में मर रहे हैं।
जबकि इस्लाम में ब्याज लेना हराम है।
7. हिंदू धर्म में दान देना अनिवार्य नहीं है। जो देना चाहे, दे और जो न देना चाहे तो वह न दे और कोई चाहे तो दान में विश्वास ही न रखे।
जबकि इस्लाम में धनवान पर अनिवार्य है कि वह हर साल ज़रूरतमंद ग़रीबों को अपने माल में से 2.5 प्रतिशत ज़कात अनिवार्य रूप से दे। इसके अलावा फ़ितरा आदि देने के लिए भी इस्लाम में व्यवस्था की गई है।
8. हिंदू धर्म में ‘ब्राह्मणों को दान‘ देने की ज़बर्दस्त प्रेरणा दी गई है।
जबकि पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने यह व्यवस्था दी है कि हमारी नस्ल में से किसी को भी सदक़ा-ज़कात मत देना। दूसरे ग़रीबों को देना। हमारे लिए सदक़ा-ज़कात लेना हराम है।
9. सनातनी हिंदू हों या आर्य समाजी, दोनों ही मानते हैं कि वेद के अनुसार पति की मौत के बाद विधवा अपना दूसरा विवाह नहीं कर सकती।
जबकि इस्लाम में विधवा को अपना दूसरा विवाह करने का अधिकार है बल्कि इसे अच्छा समझा गया है कि वह दोबारा विवाह कर ले।
10. सनातनी हिंदू हों या आर्य समाजी, दोनों ही यज्ञ करने को बहुत बड़ा पुण्य मानते हैं।
जबकि इस्लाम में यह पाप माना गया है कि आग में खाने पीने की चीज़ें जला दी जाएं। खाने पीने की चीज़ें या तो ख़ुद खाओ या फिर दूसरे ज़रूरतमंदों को दे दो। ऐसा कहा गया है।
11. सनातनी हिंदू और आर्य समाजी, दोनों ही वर्ण व्यवस्था को मानते हैं और वर्णों की ऊंच नीच और छूत छात को भी मानते हैं।
जबकि इस्लाम में न वर्ण व्यवस्था है और न ही छूत छात। इस्लाम सब इंसानों को बराबर मानता है और आजकल हिंदुस्तानी क़ानून भी यही कहता है और हिंदू भाई भी इसी इस्लामी विचार को अपनाने की कोशिश कर रहे हैं।
12. सनातनी हिंदू और आर्य समाजी, दोनों ही वैदिक धर्म की परंपरा का पालन करते हुए चोटी रखते हैं और जनेऊ पहनते हैं।
जबकि इस्लाम में न तो चोटी है और न ही जनेऊ।
13. सनातनी हिंदू और आर्य समाजी, दोनों ही वेद के अनुसार 16 संस्कार को मानते हैं, जिनमें एक विवाह भी है। इस संस्कार के अनुसार पत्नी अपने पति के मरने के बाद भी उसी की पत्नी रहती है और उससे बंधी रहती है। पति तो पत्नी का परित्याग कर सकता है लेकिन पत्नी उसे त्याग नहीं सकती।
जबकि इस्लाम में निकाह एक क़रार है जो पति की मौत से या तलाक़ से टूट जाता है और इसके बाद औरत उस मर्द की पत्नी नहीं रह जाती। वह अपनी मर्ज़ी से अपना विवाह फिर से कर सकती है। इस्लाम में पति तलाक़ दे सकता है तो पत्नी के लिए भी पति से मुक्ति के लिए ख़ुलअ की व्यवस्था की गई है।
अब हो यह रहा है कि सनातनी और आर्य समाजी, दोनों ही ख़ुद वेद की व्यवस्था से हटकर इस्लामी व्यवस्था को फ़ोलो कर रहे हैं। विधवाओं के पुनर्विवाह वे धड़ल्ले से कर रहे हैं। जब मुसलमानों ने अपने निकाह को विवाह की तरह संस्कार नहीं बनाया तो फिर हिंदू भाई अपने संस्कार को इस्लामी निकाह की तरह क़रार क्यों और किस आधार पर बना रहे हैं ?
जिस व्यवस्था पर विश्वास है, उस पर चलने के बजाय वे इस्लामी व्यवस्था का अनुकरण क्यों कर रहे हैं ?
14. विवाह को संस्कार मानने का नतीजा यह हुआ कि विधवा औरतों को हज़ारों साल तक बड़ी बेरहमी से जलाया जाता रहा। यहां तक कि इस देश में मुसलमान और ईसाई आए और उनके प्रभाव और हस्तक्षेप से हिंदुओं की चेतना जागी कि सती प्रथा के नाम पर विधवा को जलाना धर्म नहीं बल्कि अधर्म है और तब उन्होंने अपने धर्म को उनकी छाया प्रति बना लिया और लगातार बनाते जा रहे हैं।
15. विवाह की तरह ही गर्भाधान भी एक हिंदू संस्कार है। जब किसी पति को गर्भाधान करना होता है या अपनी पत्नि से किसी अन्य पुरूष का नियोग करवाना होता है तो वह 4 पंडितों को बुलवाता है और वे चारों पंडित पूरे दिन बैठकर वेदमंत्र पढ़ते हैं। उसके घर में खाते पीते हैं। उसके घर में यज्ञ करते हैं। उस यज्ञ से बचे हुए घी को मलकर औरत नहाती है और फिर पूरी बस्ती में घूम घूम कर बड़े बूढ़ों को बताती है कि आज उसके साथ क्या होने वाला है ?
बड़े बूढ़े अपनी अनुमति और आशीर्वाद देते हैं, तब जाकर पति महाशय या कोई अन्य पुरूष उस औरत के साथ वेद के अनुसार सहवास करता है।
जबकि इस्लाम में गर्भाधान संस्कार ही नहीं है और पत्नि को किसी ग़ैर मर्द के साथ सोने के लिए बाध्य करना बहुत बड़ा जुर्म और गुनाह है।
मुसलमान पति पत्नी जब चाहे सहवास कर सकते हैं। शोर पुकार मचाकर लोगों को इसकी इत्तिला देना इस्लाम में असभ्यता और पाप है।
आजकल हिंदू भाई भी इसी रीति से अपनी पत्नियों को गर्भवती कर रहे हैं क्योंकि यही रीति नेचुरल और आसान है।
धर्म सदा ही नेचुरल और आसान होता है।
मुश्किल में डालने वाली चीज़ें ख़ुद ही फ़ेल हो जाती हैं। लोग उनका पालन करना चाहें तो भी नहीं कर पाते। शायद ही आजकल कोई गर्भाधान संस्कार करता हो। इस्लामी रीति से पैदा होने के बावजूद इस्लाम पर नुक्ताचीनी करना केवल अहसानफ़रामोशी है। जिसका कारण अज्ञानता है।
16. सनातनी हिंदू और आर्य समाजी, दोनों के नज़्दीक धर्म यह है कि पत्नि से संभोग तब किया जाए जबकि उससे संतान पैदा करने की इच्छा हो। इसके बिना संभोग करने वाला वासनाजीवी और पतित-पापी माना जाता है।
जबकि इस्लाम में इस तरह की कोई पाबंदी नहीं है। इस्लामी व्यवस्था यही है कि पति पत्नी जब चाहें तब आनंद मनाएं। उन्हें आनंदित देखकर ईश्वर प्रसन्न होता है। आजकल हिंदू भाई भी इसी इस्लामी व्यवस्था पर चल रहे हैं।
18. शंकराचार्य जी के अनुसार हरेक वर्ण और लिंग के लिए वेद को पढ़ने और पढ़ाने की आज़ादी नहीं है।
जबकि क़ुरआन सबके लिए है। किसी भी रंगो-नस्ल के नर नारी इसे जब चाहंे तब पढ़ सकते हैं।
19. इसी के साथ हिंदू धर्म अर्थात वैदिक धर्म में चार आश्रम भी पाए जाते हैं।
ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम, सन्यास आश्रम
अति संक्षेप में 8वें वर्ष बच्चे का उपनयन संस्कार करके उसे वेद पढ़ने के लिए गुरूकुल भेज दिया जाए और बच्चा 25 वर्ष तक वीर्य की रक्षा करे। इसे ब्रह्मचर्य आश्रम कहते हैं। लेकिन हमारे शहर का संस्कृत महाविद्यालय ख़ाली पड़ा है। शहर के हिंदू उसमें अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजते ही नहीं जबकि शहर के कॉन्वेंट स्कूल हिंदू बच्चों से भरे हुए हैं। जहां सह शिक्षा होती है और जहां वीर्य रक्षा संभव ही नहीं है, जहां वेद पढ़ाए ही नहीं जाते,
जहां धर्म नष्ट होता है, हिंदू भाई अपने बच्चों को वहां क्यों भेजते हैं ?
ख़ैर हमारा कहना यह है कि आजकल हिंदू भाई ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन नहीं करते और न ही वे 50 वर्ष का होने पर वानप्रस्थ आश्रम का पालन करते हुए जंगल जाते हैं और सन्यास आश्रम भी नष्ट हो चुका है।
आज हिंदू धर्म के चारों आश्रम नष्ट हो चुके हैं और हिंदू भाई अब अपने घरों में आश्रम विहीन वैसे ही रहते हैं जैसे कि मुसलमान रहते हैं क्योंकि इस्लाम में तो ये चारों आश्रम होते ही नहीं।

ज़रा सोचिए कि अगर इस्लाम हिंदू धर्म की छाया प्रति होता तो उसमें भी वही सब होता जो कि हिंदू धर्म में हज़ारों साल से चला आ रहा है और उन बातों से आज तक हिंदू जनमानस पूरी तरह मुक्ति न पा सका।
चार आश्रम, 16 संस्कार, विधवा विवाह निषेध, नियोग, वर्ण-व्यवस्था, छूत छात, ब्याज, शूद्र तिरस्कार, देवदासी प्रथा, ईश्वर के मंदिर में नाच गाना, चोटी, जनेऊ और ब्राह्मण को दान आदि जैसी बातें जो कि हिंदू धर्म अर्थात वैदिक धर्म में पाई जाती हैं, उन सबसे इस्लाम आखि़र कैसे बच गया ?
इन बातों के बिना इस्लाम को हिंदू धर्म की छाया प्रति कैसे कहा जा सकता है ?

हक़ीक़त यह है कि इस्लाम किसी अन्य धर्म की छाया प्रति नहीं है बल्कि ख़ुद ही मूल धर्म है और पहले से मौजूद ग्रंथों में धर्म के नाम पर जो भी अच्छी बातें मिलती हैं वे उसके अवषेश और यादगार हैं, जिन्हें देखकर लोग यह पहचान सकते हैं कि इस्लाम सनातन काल है, हमेशा से यही मानव जाति का धर्म है।
ईश्वर के बहुत से नाम हैं। हरेक ज़बान में उसके नाम बहुत से हैं। उसके बहुत से नामों में से एक नाम ‘अल्लाह‘ है। यह नाम क़ुरआन में भी है और बाइबिल में भी और संस्कृत ग्रंथों में भी। ईश्वर का निज नाम यही है लेकिन उसके निज नाम को ही भुला दिया गया। ईष्वर के नाम को ही नहीं बल्कि यह भी भुला दिया गया कि सब एक ही पिता की संतान हैं। सब बराबर हैं। जन्म से कोई नीच और अछूत है ही नहीं। ऐसा तब हुआ जब आदम और नूह (अ.) को भुला दिया गया जिनका नाम संस्कृत ग्रंथों में जगह जगह आया है। इन्हें यहूदी, ईसाई और मुसलमान सभी पहचानते हैं। हिंदू भाई इन्हें ऋषि कहते हैं और मुसलमान इन्हें नबी कहते हैं। इनके अलावा भी हज़ारों ऋषि-नबी आए और हर ज़माने में आए और हर क़ौम में आए। सबने लोगों को यही बताया कि जिसने तुम्हें पैदा किया है तुम्हारा भला बुरा बस उसी एक के हाथ में है, तुम सब उसी की आज्ञा का पालन करो। ऋषियों और नबियों ने मानव जाति को हरेक काल में एक ही धर्म की शिक्षा दी। । वे सिखाते रहे और लोग भूलते रहे। आखि़रकार पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इस दुनिया में आए और फिर उसी भूले हुए धर्म को याद दिलाया और ऐसे याद दिलाया कि अब किसी के लिए भूलना मुमकिन ही न रहा।
जब दबंग लोगों ने कमज़ोरों का शोषण करने के लिए धर्म में बहुत सी अन्यायपूर्ण बातें निकाल लीं, तब ईश्वर ने क़ुरआन के रूप में अपनी वाणी का अवतरण पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के अन्तःकरण पर किया और पैग़म्बर साहब ने धर्म को उसके वास्तविक रूप में स्थापित कर दिया। जिसे देखकर लोगों ने ऊंच नीच, छूतछात और सती प्रथा जैसी रूढ़ियों को छोड़ दिया। बहुतों ने इस्लाम कहकर इस्लाम का पालन करना आरंभ कर दिया और उनसे भी ज़्यादा वे लोग हैं जिन्होंने इस्लाम के रीति रिवाज तो अपना लिए लेकिन इस्लाम का नाम लिए बग़ैर। इन्होंने इस्लामी उसूलों को अपनाने का एक और तरीक़ा निकाला। इन्होंने यह किया कि इस्लामी उसूलों को इन्होंने अपने ग्रंथों में ढूंढना शुरू किया जो कि मिलने ही थे। अब इन्होंने उन्हें मानना शुरू कर दिया और दिल को समझाया कि हम तो अपने ही धर्म पर चल रहे हैं।
ये लोग हिंदू धर्म के प्रवक्ता बनकर घूमते हैं। ऐसे लोगों को आप आराम से पहचान सकते हैं। ये वे लोग हैं जिनके सिरों पर आपको न तो चोटी नज़र आएगी और न ही इनके बदन पर जनेऊ और धोती। न तो ये बचपन में ये गुरूकुल गए थे और न ही 50 वर्ष का होने पर ये जंगल जाते हैं। हरेक जाति के आदमी से ये हाथ मिलाते हैं। फिर भी ये ख़ुद को वैदिक धर्म का पालनकर्ता बताते हैं।
ख़ुद मुसलमान की छाया प्रति बनने की कोशिश कर रहे हैं और कोई इनकी चालाकी को न भांप ले, इसके लिए ये एक इल्ज़ाम इस्लाम पर ही लगा देते हैं कि ‘इस्लाम तो हिंदू धर्म की छायाप्रति है‘

ये लोग समय के साथ अपने संस्कार और अपने सिद्धांत बदलने लगातार बदलते जा रहे हैं और वह समय अब क़रीब ही है जब ये लोग इस्लाम को मानेंगे और तब उसे इस्लाम कहकर ही मानेंगे।
तब तक ये लोग यह भी जान चुके होंगे कि ईश्वर का धर्म सदा से एक ही रहा है। ‘
एक ईश्वर की आज्ञा का पालन करना‘ ही मनुष्य का सनातन धर्म है। अरबी में इसी को इस्लाम कहते हैं। इस्लाम का अर्थ है ‘ईश्वर का आज्ञापालन।‘
इसके अलावा मनुष्य का धर्म कुछ और हो भी कैसे सकता है ?
वर्ण व्यवस्था जा चुकी है और इस्लाम आ चुका है।
जिसे जानना हो, वह जान ले !



Thursday, September 15, 2011

क्या खाने की प्लेट चिकेन के बिना अधूरी होती है ?

हमने एक रिपोर्ट पढ़ी तो यह सवाल हमारे सामने आ खड़ा हुआ .
आप भी देखें वह रिपोर्ट - 

खाने की प्लेट चिकेन के बिना अधूरी होती है

खाने की प्लेट चिकेन के बिना अधूरी होती है। यह बात सुनकर कोई शाकाहारी व्यक्ति भले ही मुंह बिचकाए, पर चिकेन के शौकीन  इसका पुरजोर समर्थन करेंगे।बदलते समय में जब खान-पान की आदतें बदल रही हैं और बाजार में तमाम तरह के व्यंजन उपलब्ध हैं, ऐसे समय में चिकेन से बने व्यंजन लोगों की पहली पसंद बने हुए हैं। 
शेफ सुहैल हसन कहते हैं आज चिकेन से बने कई तरह के व्यंजन उपलब्ध हैं। चिकेन पारंपरिक इंडियन करी से लेकर चाइनीज, इटालियन हर तरह के खाने में मिल जाएगा।भारतीय खाने में चिकेन बिरियानी, चिकेन करी, तंदूरी चिकेन जैसे व्यंजन मिल जाएंगे। अफगानी खाने में शोरमा, अफगानी तंदूर और कबाब जैसे लजीज पकवान मिल जाएंगे। इटालियन खाने में चिकेन पिज्जा और चिकेन पास्ता मिल जाएगा, वहीं चाइनीज खाने में चिकेन चाउमीन, चिकेन सूप, चिकेन चॉप्सी, चिली चिकेन, चिकेन मोमो और चिकेन मंचूरियन जैसे स्वादिष्ट और लोकप्रिय व्यंजन मिल जाएंगे। उनके अनुसार, फास्ट फूड के शौकीनों को भी चिकेन बर्गर, चिकेन पैटीस और चिकेन रोल जैसे ढेरों व्यंजन मिल जाते हैं। एक चिकेन से आज हजारों तरह के व्यंजन बनने लगे हैं।चिकेन के एक दीवाने परमानंद मिश्र का कहना है कि खाने में रोज ही चिकेन व्यंजन हो तो क्या बात है। लेकिन जरूरत इस बात की है कि वह अलग-अलग वेराइटी में हो। उनकी पत्नी सौम्या मिश्र ने बताया कि घर हो या बाजार, ननवेजेटेरियन्स की पहली पसंद चिकेन व्यंजन ही होते हैं। साथ ही उन्होंने जोड़ा कि घर आने वाले मेहमान अगर शाकाहारी हों तो बड़ी कोफ्त होती है। समझ में नहीं आता है कि क्या बनाएं और क्या खिलाएं। चिकेन के अन्य आशिक प्रसेनजित राज्यवर्द्धन ने कहा कि रोज के खान-पान का हिस्सा बन चुके चिकेन संस्कृति को बढ़ावा देने में रेस्त्राओं का भी खासा योगदान रहा है। उनकी पत्नी दिव्या ने बताया कि घर से बाहर उनकी पहली पसंद चिकेन से बने व्यंजन ही होते हैं।रेसिपी विशेषज्ञ ममता सिंह कहती हैं चिकेन कलचर आज इस कदर फैला हुआ है कि कुछ लोगों को इसके बिना भोजन अधूरा लगता है। कभी केवल घरों में पकने वाला चिकेन आज रेस्त्रां, कैफे के अलावा गली-मुहल्ले में स्थित रोल, मोमो और चाउमीन के फास्ट फूड के ठेले पर भी मिलने लगा है। वैसे पुरानी दिल्ली के जामा मस्जिद इलाके के मशहूर करीम रेस्त्रां, न्यू फ्रेंडस कॉलोनी के अल बेक रेस्त्रां में दिन भर खाने के लिए लोगों की भीड़ जमा रहती है।

मैक्डोनाल्ड्स का मशहूर चिकेन बर्गर यहां आने वाले खाने के शौकीनों के सबसे पसंदीदा खाने में से एक है। वहीं केएफसी [केंटचुकी फ्राइड चिकेन] रेस्त्रां तो चिकेन प्रेमियों के लिए खास ही है। यहां चिकेन विंग्स, चिकेन बर्गर और चिकेन लेग्स जैसे चिकेन के ढेरों आइटम मिलते हैं। कनॉट प्लेस स्थित केएफसी आउटलेट मे काम करने वाले अतुल सिंह ने कहा कि इसका स्वाद एक बार चढ़ जाए तो छूटना मुश्किल होता है।
चिकेन न केवल अपने देश में, बल्कि बाहर के देशों मे भी काफी लोकप्रिय है। अमेरिका में चिकेन इस कदर लोकप्रिय है कि वहां सितंबर महीना नेशनल चिकेन मंथ के रूप में मनाया जाता है। 15 सितंबर को वहां नेशनल चिकेन लवर्स डे के तौर पर मनाया जाता है। इस दिन अमेरिका के कई रेस्त्राओं में मुफ्त चिकेन परोसा जाता है। इन्हीं में से एक पोलो ट्रॉपिकल रेस्त्रां चेन में आज के दिन हर साल दोपहर दो बजे से शाम के सात बजे तक पीले कपड़ों में आने वाले लोगों को मुफ्त में चिकेन परोसा जाता है। यानि जी भर के चिकेन खाइए वो भी बिल्कुल मुफ्त और मनाइए चिकेन लवर्स डे।
Source : http://aryabhojan.blogspot.com/2011/09/blog-post_15.html

Monday, September 12, 2011

क्या पश्चिमी नग्नता में ही नारी उत्थान छिपा है ? - प्रवीण शुक्ल



बात शुरू करते है नारी शास्क्तिकरण और नारी उत्थान की (जिसकी हवा बाँध कर कुछ चंद प्रगतिवादी अपनी पद प्रतिस्ठा और अर्थ की रोटियां सेक रहे है और समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को दिग्भर्मित किये है ),,,, आखिर नारी वादी आन्दोलन है क्या? मै तो आज तक नहीं समझ पाया .,,,, क्या नारी वादी आन्दोलन वास्तव में स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए की जा रही कोई क्रान्ति है ?,, या फिर पश्चिम से लिया गया एक खोखला दर्शन ,, जिससे स्त्री उत्थान तो संभव नहीं हां अवनति के द्वार अवस्य खुलते है ,,, अगर पश्चिम के इस दर्शन से कुछ हो सकता तो पश्चिमी समाज में स्त्रियो की जो दशा आज है शायद वो नहीं होती ,,,,,
हत्या ----दिसम्बर २००५ की रिपोर्ट के आधार अनुसार अकेले अमेरिका में ११८१ एकल औरतो की हत्या हुई जिसका औसत लगभग तीन औरते प्रति दिन का पड़ता है यहाँ गौर करने वाली बात ये है की ये हत्याए पति या रिश्ते दार के द्बारा नहीं की गयी बल्कि ये हत्याए महिलाओं के अन्तरंग साथियो (भारतीय प्रगतिवादी महिलाओं के अनुसार अन्तरंग सम्बन्ध बनाना महिलायों की आत्म निर्भरता और स्स्वतंत्रता से जुड़ा सवाल है और इसके लिए उन्हें स्वेच्छा होनी चाहिए) के द्बारा की गयी ,,,,
अब अंत रंग साथियो ने येसा क्यूँ किया कारण आप सोचे ,,,,नहीं नहीं नहीं नंगा पन (कथित प्रगतिवाद ) इसके लिए जिम्मेदार नहीं है ,,,
घरेलू हिंसा-----National Center for Injury Prevention and Control, के अनुसार अमेरिका में ४.८ मिलियन औरते प्रति वर्ष घेरलू हिंसा और अनेच्छिक सम्भोग का शिकार होती है ,,, और इनमे से कम से कम २० % हो अस्पताल जाना पड़ता है ...
कारण ---- पुरुष विरोधी मानसिकता और पारिवारिक व्यवस्थाओं में अविस्वाश और निज का अहम् (जो की कथित प्रगतिवाद की श्रेणी में आता है ) तो कतई नहीं होना चाहिए ,,,
सम्भोगिक हिंसा -----National Crime Victimization Survey, के अनुसार 232,960 औरते अकेले अमेरिका में २००६ के अन्दर बलात्कार या सम्भोगिक हिसा का शिकार हुई , अगर दैनिक स्तर देखा जाए तो ६०० औरते प्रति दिन आता है,,,इसमें छेड़छाड़ और गाली देने जैसे कृत्य को सम्मिलित नहीं किया गया है ,,, वे आकडे इसमें सम्मिलित नहीं है जो प्रताडित औरतो की निजी सोच ( क्यूँ की कुछ औरते येसा सोचती है की मामला इतना गंभीर नहीं है या अपराधी का कुछ नहीं हो सकता)और पुलिस नकारापन और सबूतों अनुपलब्धता के के कारण दर्ज नहीं हो सके ,,,
कारण --- इन निकम्मे प्रगतिवादियों और नारी वादियों द्बारा खड़े किये गए पुरुष विरोधी बबंडर रूपी भूत की परिणिति से उत्पन्न स्त्री पुरुष बिरोध और वैमन्यस्यता ( स्त्रियों को पुरुषों के खिलाफ खूब भरा जाना और और पुरुषों का स्त्र्यो की सत्ता के प्रति एक भय का अनुभव )तो बिलकुल नहीं ये आकडे बहुत है मै कम दे रहा हूँ और उद्देश्य बस इतना ही है की पुरुष विरोध के कथित पूर्वाग्रह को छोडिये ( जिसे मै पश्चिम की दें मानता हूँ )
इसमें किसी तरह का कोई नारी विरोध नहीं है और ना ही मै ये चाह्ता हूँ की उनकी स्तिथि में सुधार ना हो ,, बल्कि मै तो आम उन स्त्रियों को समझाना चाहता हूँ (जो इन कथित प्रगतिवादी महिलाओं और पुरुषों के द्बारा उनके निजी लाभ के कारण उकसाई जा रही है) की इनके प्रगतिवाद में कोई दम नहीं अगर वास्तव में आप को समाज में अपनी स्तिथि को उच्चता पर स्थापित करना है तो आप को उस भारतीय परम्परा की ओर बापस आना होगा ( जो कहता है स्त्रिया पुरुषों से अधिक उच्च है ) है ,,,
अब कथित प्रगतिवादियों के लिए छोटा सन्देश आप को अपनी प्रस्थ भूमि पर फिर विचार करने की आवश्यकता है और देखना है की जिस प्रगतिवाद की दुहाई आप दे रही है और जिन्हें आप ने मानक के रूप में स्थापित कर रक्खा है ,, क्या प्रगति वाद से उनकी वास्तव में कोई भी प्रगति हुई इतने लम्बे चले पश्चमी प्रगतिवादी आन्दोलन से क्या हासिल हुआ केवल विच्च का नाम जिस पर पश्चिमी औरते गर्व करती है ,,
’m tough, I’m ambitious, and I know exactly what I want. If that makes me a bitch, okay. - Madonna Ciccone

Source : http://www.thenetpress.com/2009/10/blog-post_09.html