'सुधिनामा' ब्लॉग पर साधना जी ने एक पोस्ट
सिल्वरडीन एम्ब्लेम ओ’नील का अंतिम इच्छापत्र और वसीयतनामा
पेश की है . इसमें ओ'नील कहते हैं कि
मरने के बाद क्या होता है यह कौन जानता है ?
यह बात केवल इश्वर जानता है और उसने अपने चुने हुए बन्दों के ज़रिये हर काल में इस बात का ज्ञान दिया है। लिहाज़ा यह कहना सही नहीं है कि
मरने के बाद क्या होता है यह कौन जानता है ?
इस विषय पर विस्तार से यहाँ एक चर्चा देखी जा सकती है -
मरणोत्तर जीवन : तथ्य और सत्य
स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के नवम समुल्लास में आवागमनीय पुनर्जन्म की धारणा का प्रतिपादन करते हुए लिखा है, ‘‘पूर्व जन्म के पुण्य-पाप के अनुसार वर्तमान जन्म और वर्तमान तथा पूर्व जन्म के कर्मानुसार भविष्यत् जन्म होते हैं।’’ (9-73)
इस विषय में लोगों ने स्वामी जी से कुछ प्रश्न भी किए हैं, जो निम्नवत् हैं :-
1. जन्म एक है या अनेक ? (9-67)
2. जन्म अनेक हैं तो पूर्व जन्म और मृत्यु की बातों का स्मरण क्यों नहीं रहता? (9-68)
3. मनुष्य और पशु आदि के शरीर में जीव एक जैसा है या भिन्न-भिन्न जाति का? (9-74)
4. मनुष्य का जीव पशु आदि में और पशु आदि का मनुष्य के शरीर में आता जाता है या नहीं? (9-75)
5. मुक्ति एक जन्म में होती है या अनेक में ? (9-76)
स्वामी जी उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर निम्न प्रकार देते हैं ;-
1. जन्म अनेक हैं।
2. जीव अल्पज्ञ है, त्रिकालदर्शी नहीं, इसलिए पूर्व जन्म का स्मरण नहीं रहता।
3. मनुष्य व पशु आदि में जीव एक सा है।
4. पाप-पुण्य के अनुसार मनुष्य का जीव पशु आदि में और पशु आदि का मनुष्य के शरीर में आता जाता है।
5. मुक्ति अनेक जन्मों में होती है।
मनुस्मृति के हवाले से स्वामी जी ने लिखा है ;-
‘‘स्थावराः कृमि कीटाश्च मत्स्याः सर्पाश्च कच्छपाः। पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसी गतिः।’’ (9-83)
भावार्थ ;- ‘‘जो अत्यंत तमोगुणी है वो स्थावर वृक्षादि, कृमि, कीट, मत्स्य, सप्र्प, कच्छप, पशु और मृग के जन्म को प्राप्त होते हैं।’’
1. जन्म एक है या अनेक ? (9-67)
2. जन्म अनेक हैं तो पूर्व जन्म और मृत्यु की बातों का स्मरण क्यों नहीं रहता? (9-68)
3. मनुष्य और पशु आदि के शरीर में जीव एक जैसा है या भिन्न-भिन्न जाति का? (9-74)
4. मनुष्य का जीव पशु आदि में और पशु आदि का मनुष्य के शरीर में आता जाता है या नहीं? (9-75)
5. मुक्ति एक जन्म में होती है या अनेक में ? (9-76)
स्वामी जी उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर निम्न प्रकार देते हैं ;-
1. जन्म अनेक हैं।
2. जीव अल्पज्ञ है, त्रिकालदर्शी नहीं, इसलिए पूर्व जन्म का स्मरण नहीं रहता।
3. मनुष्य व पशु आदि में जीव एक सा है।
4. पाप-पुण्य के अनुसार मनुष्य का जीव पशु आदि में और पशु आदि का मनुष्य के शरीर में आता जाता है।
5. मुक्ति अनेक जन्मों में होती है।
मनुस्मृति के हवाले से स्वामी जी ने लिखा है ;-
‘‘स्थावराः कृमि कीटाश्च मत्स्याः सर्पाश्च कच्छपाः। पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसी गतिः।’’ (9-83)
भावार्थ ;- ‘‘जो अत्यंत तमोगुणी है वो स्थावर वृक्षादि, कृमि, कीट, मत्स्य, सप्र्प, कच्छप, पशु और मृग के जन्म को प्राप्त होते हैं।’’
वेदों के पुरोधा और शोधक महर्षि दयानंद ने अपनी पुस्तक ऋग्वेदादि भाष्य-भूमिका के पुनर्जन्म अध्याय में पुनर्जन्म के समर्थन में ऋग्वेद मंडल-10 के दो मंत्रों के साथ अथर्ववेद व यजुर्वेद के मंत्र भी प्रस्तुत किए हैं
1. ‘‘आ यो धर्माणि प्रथमः ससाद ततो वपूंषि कृणुषे पुरूणि।
धास्युर्योनि प्रथमः आ विवेशां यो वाचमनुदितां चिकेत’’।।
(अथर्व0 कां0-5, अनु0-1, मं0-2)
भाषार्थ ः ‘‘जो मनुष्य पूर्वजन्म में धर्माचरण करता है, उस धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीर को धारण करता है और अधर्मात्मा मनुष्य नीच शरीर को प्राप्त होता। जो पूर्वजन्म में किए हुए पाप पुण्य के फलों को भोग करके स्वभावयुक्त जीवात्मा है वह पूर्व शरीर को छोड़कर वायु के साथ रहता है, पुनः जल, औषधि व प्राण आदि में प्रवेश करके वीर्य में प्रवेश करता है। तदनन्तर योनि अर्थात गर्भाशय में स्थिर होकर पुनः जन्म लेता है। जो जीव अनूदित वाणी अर्थात जैसी ईश्वर ने वेदों में सत्य भाषण करने की आज्ञा दी है, वैसा ही यथावत् जान के बोलता है, और धर्म ही में यथावत स्थित रहता है, वह मनुष्य योनि में उत्तम शरीर धारण करके अनेक सुखों को भोगता है और जो अधर्माचरण करता है वह अनेक नीच शरीर अथवा कीट, पतंग, पशु आदि के शरीर को धारण करके अनेक दुखों को भोगता है।’’
धास्युर्योनि प्रथमः आ विवेशां यो वाचमनुदितां चिकेत’’।।
(अथर्व0 कां0-5, अनु0-1, मं0-2)
भाषार्थ ः ‘‘जो मनुष्य पूर्वजन्म में धर्माचरण करता है, उस धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीर को धारण करता है और अधर्मात्मा मनुष्य नीच शरीर को प्राप्त होता। जो पूर्वजन्म में किए हुए पाप पुण्य के फलों को भोग करके स्वभावयुक्त जीवात्मा है वह पूर्व शरीर को छोड़कर वायु के साथ रहता है, पुनः जल, औषधि व प्राण आदि में प्रवेश करके वीर्य में प्रवेश करता है। तदनन्तर योनि अर्थात गर्भाशय में स्थिर होकर पुनः जन्म लेता है। जो जीव अनूदित वाणी अर्थात जैसी ईश्वर ने वेदों में सत्य भाषण करने की आज्ञा दी है, वैसा ही यथावत् जान के बोलता है, और धर्म ही में यथावत स्थित रहता है, वह मनुष्य योनि में उत्तम शरीर धारण करके अनेक सुखों को भोगता है और जो अधर्माचरण करता है वह अनेक नीच शरीर अथवा कीट, पतंग, पशु आदि के शरीर को धारण करके अनेक दुखों को भोगता है।’’
2. ‘‘द्वे सतीऽ अशृणावं पितृणामहं देवानामुत मत्र्यानाम्।
ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं च।।’’
(यजु0 अ0-19, मं0-47)
भाषार्थ ः ‘‘इस संसार में हम दो प्रकार के जन्मों को सुनते हैं। एक मनुष्य शरीर का धारण करना और दूसरा नीच गति से पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि का होना। इनमें मनुष्य शरीर के तीन भेद हैं, एक पितृ अर्थात् ज्ञानी होना, दूसरा देव अर्थात् सब विधाओं को पढ़कर विद्वान होना, तीसरा मत्र्य अर्थात् साधारण मनुष्य का शरीर धारण करना। इनमें प्रथम गति अर्थात् मनुष्य शरीर पुण्यात्माओं और पुण्यपाप तुल्य वालों का होता है और दूसरा जो जीव अधिक पाप करते हैं उनके लिए है। इन्हीं भेदों से सब जगत् के जीव अपने-अपने पुण्य और पापों के फल भोग रहे हैं। जीवों को माता और पिता के शरीर में प्रवेश करके जन्म धारण करना, पुनः शरीर का छोड़ना, फिर जन्म को प्राप्त होना, बारंबार होता है।’’
यहाँ एक बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि कभी सृष्टि का प्रारम्भ तो अवश्य हुआ होगा, चाहे वह करोड़ों साल पहले हुआ हो, सृष्टि के प्रारम्भ में मनुष्य के जन्म का सैद्धान्तिक आधार क्या था ? जैसा कि स्वामी जी ने लिखा है कि ‘‘प्रथम सृष्टि के आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन ऋषियों की आत्मा में एक-एक वेद का प्रकाश किया। (7-86) आगे क्रम सं0 88 में लिखा है कि वे ही चार सब जीवों से अधिक पवित्रात्मा थे, अन्य कोई उनके सदृश नहीं था।यहाँ सवाल यह है कि सृष्टि के आदि में पूर्व पुण्य कहाँ से आया? इस सवाल का कोई तर्कपूर्ण और न्यायसंगत जवाब स्वामी जी ने अपने ग्रंथों में कहीं नहीं लिखा।
ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं च।।’’
(यजु0 अ0-19, मं0-47)
भाषार्थ ः ‘‘इस संसार में हम दो प्रकार के जन्मों को सुनते हैं। एक मनुष्य शरीर का धारण करना और दूसरा नीच गति से पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि का होना। इनमें मनुष्य शरीर के तीन भेद हैं, एक पितृ अर्थात् ज्ञानी होना, दूसरा देव अर्थात् सब विधाओं को पढ़कर विद्वान होना, तीसरा मत्र्य अर्थात् साधारण मनुष्य का शरीर धारण करना। इनमें प्रथम गति अर्थात् मनुष्य शरीर पुण्यात्माओं और पुण्यपाप तुल्य वालों का होता है और दूसरा जो जीव अधिक पाप करते हैं उनके लिए है। इन्हीं भेदों से सब जगत् के जीव अपने-अपने पुण्य और पापों के फल भोग रहे हैं। जीवों को माता और पिता के शरीर में प्रवेश करके जन्म धारण करना, पुनः शरीर का छोड़ना, फिर जन्म को प्राप्त होना, बारंबार होता है।’’
यहाँ एक बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि कभी सृष्टि का प्रारम्भ तो अवश्य हुआ होगा, चाहे वह करोड़ों साल पहले हुआ हो, सृष्टि के प्रारम्भ में मनुष्य के जन्म का सैद्धान्तिक आधार क्या था ? जैसा कि स्वामी जी ने लिखा है कि ‘‘प्रथम सृष्टि के आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन ऋषियों की आत्मा में एक-एक वेद का प्रकाश किया। (7-86) आगे क्रम सं0 88 में लिखा है कि वे ही चार सब जीवों से अधिक पवित्रात्मा थे, अन्य कोई उनके सदृश नहीं था।यहाँ सवाल यह है कि सृष्टि के आदि में पूर्व पुण्य कहाँ से आया? इस सवाल का कोई तर्कपूर्ण और न्यायसंगत जवाब स्वामी जी ने अपने ग्रंथों में कहीं नहीं लिखा।
स्वामी जी ने स्वर्ग, नरक, पुनर्जन्म, परलोक चार शब्दो की गलत और भ्रामक व्याख्या की है। नवम समुल्लास के क्रम सं0 79 में लिखा है कि सुख विशेष स्वर्ग और विषय तृष्णा में फंसकर दुःख विशेष भोग करना नरक कहलाता है। जो सांसारिक सुख है वह स्वर्ग और जो सांसारिक दुःख है वह नरक है। जबकि वैदिक धारणा और शब्दकोष के अनुसार स्वर्ग और नरक स्थान विशेष का नाम है। कृपया ये देखे http://islamhinduism.com/hinduism/analysis/51-vedic-paradise-an-overview और http://islamhinduism.com/hinduism/analysis/50-vedic-paradise-the-inside-story
इसी प्रकार पुनः का अर्थ दोबारा है न कि बार-बार। जैसे पुनर्विवाह, पुनर्निर्माण वैसे ही पुनर्जन्म। चतुर्थ समुल्लास में स्वामी दयानंद ने मनुस्मृति के कुछ ‘लोकों द्वारा परलोक के सुख हेतु उपाय बताए हैं। यहाँ स्वामी जी ने परलोक और परजन्म दोनों को एक ही अर्थ में लिया है। (4-106) मनुस्मृति के जो ‘लोक उन्होंने उद्धरित किए हैं वे परलोक की सफलता पर केन्द्रित हैं न कि आवागमनीय पुनर्जन्म पर। स्वामी जी की धारणाओं और तथ्यों में प्रचुर विरोधाभास पाया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वेद विषयों पर स्वामी जी की जानकारी संदिग्ध थी।
मनुष्य चाहे जन्मना हिंदू हो, यहूदी हो, ईसाई हो या मुसलमान या अन्य किसी धर्म, मत व पंथ को मानने वाला हो, सबके जीवन का मूल स्रोत एक ही है। सब एक माँ-बाप की संतान हैं, सब परस्पर भाई-भाई हैं। यह तथ्य न केवल वेद और कुरआन सम्मत है बल्कि विज्ञान सम्मत भी है। इसके साथ एक सर्वमान्य तथ्य यह भी है कि मनुष्य चाहे एक हजार साल जिन्दा रहे, उसकी मृत्यु सुनिश्चित है। मृत्यु जीवन की अनिवार्य नियति है। इस नियति से जुड़ा है मानव जीवन का एक बड़ा अहम सवाल कि हमें मृत्युपरांत कहाँ जाना है ? मृत्युपरांत हमारा क्या होगा ? इस एक अहम सवाल से जुड़ी है हमारे जीवन की सारी आध्यात्मिकता (Spirituality) और सर्वांग सम्पूर्णता। आइए इस अहम विषय पर एक तथ्यपरक दृष्टि डालते हैं।
जड़वादियों (Materialist) का मानना है कि यहीं आदि है और यही अंत है। Death is the end of life ‘‘भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।’’ देह भस्म हो गया फिर आना-जाना कहाँ ? अनीश्वरवादी (Atheist) महात्मा गौतम बुद्ध ने कहा, ‘‘भला करो, भले बनो, मृत्युपरांत क्या होगा यह प्रश्न असंगत है, अव्याकृत है।’’ हिंदूवादियों (Polytheist) का मानना है कि वनस्पति, पशु-पक्षी और मनुष्यादि में जीव (Soul) एक सा है और कर्मानुसार यह जीव (Soul) वनस्पति योनि, पशु योनि और मनुष्य योनि में विचरण करता रहता है। जीवन-मरण की यह अनवरत श्रंखला है। रामचरितमानस के लेखक गोस्वामी तुलसीदास के मतानुसार कुल चैरासी लाख योनियों में 27 लाख स्थावर, 9 लाख जलचर, 11 लाख पक्षी, 4 लाख जानवर और 23 लाख मानव योनियाँ हैं। हिंदू धर्मदर्शन के मनीषियों ने इस अवधारणा को आवागमनीय पुनर्जन्म का नाम दिया है।
जड़वादियों (Materialist) का मानना है कि यहीं आदि है और यही अंत है। Death is the end of life ‘‘भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।’’ देह भस्म हो गया फिर आना-जाना कहाँ ? अनीश्वरवादी (Atheist) महात्मा गौतम बुद्ध ने कहा, ‘‘भला करो, भले बनो, मृत्युपरांत क्या होगा यह प्रश्न असंगत है, अव्याकृत है।’’ हिंदूवादियों (Polytheist) का मानना है कि वनस्पति, पशु-पक्षी और मनुष्यादि में जीव (Soul) एक सा है और कर्मानुसार यह जीव (Soul) वनस्पति योनि, पशु योनि और मनुष्य योनि में विचरण करता रहता है। जीवन-मरण की यह अनवरत श्रंखला है। रामचरितमानस के लेखक गोस्वामी तुलसीदास के मतानुसार कुल चैरासी लाख योनियों में 27 लाख स्थावर, 9 लाख जलचर, 11 लाख पक्षी, 4 लाख जानवर और 23 लाख मानव योनियाँ हैं। हिंदू धर्मदर्शन के मनीषियों ने इस अवधारणा को आवागमनीय पुनर्जन्म का नाम दिया है।
इस अवधारणा (Cycle of Birth & Death) के संदर्भ में हिंदू धर्मदर्शन के चिंतकों का एक मजबूत तीर व तर्क है कि संसार में कोई प्राणी अंधा जन्मता है, कोई गूंगा और लंगड़ा जन्मता है। कोई प्रतिभाशाली तो कोई निपट मूर्ख जन्मता है। यहाँ कोई खूबसूरत है, कोई बदसूरत है। कोई निर्धन है तो कोई धनवान है। कोई हिंदू जन्मता है तो कोई मुसलमान जन्मता है। कोई ऊँची जात है तो कोई नीची जात है। जन्म के प्रारम्भ में ही उक्त विषमताएं पिछले जन्म का फल नहीं तो और क्या हैं ? इसी धारणा के साथ हिंदू मनीषियों की यह भी मान्यता है कि मनुष्य योनि पूर्व जन्म के अच्छे कर्मो से मिलती है। ‘‘बड़े भाग मानुष तनु पाया’’। यहाँ हिंदू चिंतकों के उक्त दोनों तथ्यों में असंगति स्पष्ट प्रतीत होती है।
अगर यह मान लिया जाए कि यहाँ की सभी विषमताएं पूर्वकृत कर्मो का लेखा है। एक मनुष्य दूसरे को इसलिए मार रहा है कि उसने पिछले जन्म में उसे मारा है। एक मनुष्य यहाँ इसलिए जुल्म कर रहा है कि पिछले जन्म में उस पर जुल्म किया गया है। फिर तो यह एक युक्तियुक्त स्थिति है। अगर यह मान्यता सत्य है फिर तो मामला सस्ते में ही निपट जाता है। फिर तो इस विषमता को दूर करने के सारे प्रयास न केवल बेकार हैं बल्कि प्रयास करना ही बेवकूफी है। यहाँ जो हो रहा है सब कुछ तर्कसंगत और न्यायसंगत है। लूटमार, मारकाट, अनाचार, अत्याचार यदि सभी कुछ पूर्व कर्मो का फल है तो फिर न कोई पाप-पुण्य का आधार बनता है न ही सही-गलत बाकी रहता है। यहाँ यह विचारणीय है कि यदि मनुष्य योनि पूर्व जन्म के अच्छे कर्मो से मिलती है तो फिर कोई जन्म से अंधा, बहरा, लंगड़ा और जड़बुद्धि क्यों ? दूसरा विचारणीय तथ्य है कि यदि इस जन्म की अपंगता पिछली योनि के कर्मो का फल है तो न्याय की मांग है कि दण्डित व्यक्ति को यह जानकारी होनी चाहिए कि उसने पूर्वजन्म में किस योनि में क्या पाप व दुष्कर्म किया है जिसके कारण उसे यह सजा मिली है ताकि सुधार की सम्भावना बनी रहे। अगर अपंग व्यक्ति को पूर्व योनि में किए दुष्कर्म और पापकर्म का पता नहीं है और सत्य भी यही है कि उसे कुछ पता नहीं है तो क्या आवागमनीय पुनर्जन्म की धारणा पूर्णतया भ्रामक और कतई मिथ्या नहीं हो जाती ?
आज अध्यात्म को छोड़ हम अधिभूत में डूबते जा रहे हैं। एक तरफ नैतिक पतन की पराकाष्ठा, अनाचार, अत्याचार, बिगाड़ बढ़ता जा रहा है, दूसरी तरफ उत्तम और दुर्लभ मनुष्य योनि (Population) बढ़ती जा रही है। किस तरह समझें इस पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को ? विज्ञान इस तथ्य की तह तक पहुंच गया है कि इस सृष्टि का आदि भी है और अंत भी है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार सृष्टि का प्रारम्भ एक महाविस्फोटक से हुआ और अंत भी इसी प्रकार होगा। फिर जन्म-मरण की अनवरत श्रंखला को कैसे सत्य माना जा सकता है ?
आवागमनीय पुनर्जन्म की अवधारणा का तीन तत्वः जीवन तत्व (Life) चेतन तत्व (Consciousness) और आत्म तत्व (Soul) के आधार पर वैज्ञानिक विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि वनस्पतियों में केवल जीवन तत्व (Life) होता है, चेतन तत्व (Consciousness) और आत्म तत्व (Soul) नहीं होता। यदि वनस्पतियों में भी वही चेतन तत्व (Consciousness) होता जो पशु-पक्षियों में होता है, तो फिर वनस्पतियों का भक्षण भी उसी प्रकार पाप व अपराध होता जिस प्रकार तथाकथित पुनर्जन्मवादी पशु-पक्षियों का मांस खाने में मानते हैं। अब यदि जीव-जन्तुओं और पशु-पक्षियों में भी वही चेतन तत्व (Consciousness) और आत्म तत्व (Soul) होता जो मनुष्य में है तो पशु-पक्षियों को मारना भी उतना ही पाप व अपराध होता जितना मनुष्यों को मारने में होता है। पेड़-पौधों और पशुओं में वह चेतन तत्व व आत्म तत्व नहीं होता जो कर्म कराता है और कर्मफल भोगने का कारण बनता है। वृक्ष-वनस्पति और पशुओं में केवल इनकमिंग सुविधा है जबकि मनुष्यों में इनकमिंग के साथ-साथ आउट गोइंग सुविधा भी है जिससे कर्म लेखा (Account of Deeds) तैयार होता है। मनुष्य इसलिए तो सर्वश्रेष्ठ प्राणी है कि परम तत्व (God) ने उसे विवेक (Wisdom) और विचार (Thinking) प्रदान किया है जो किसी अन्य को नहीं किया है। जहाँ जीवन है वहाँ चेतना और आत्मा का होना अनिवार्य नहीं। आत्मा (Soul) चेतना (Consciousness) और प्रज्ञा (Knowledge) वहीं है जहाँ कर्म है। पशुओं में नींद, भूख, भय और मैथुन आदि दैहिक क्रियाएं( Physical Process) तो है मगर विवेक संबंधी क्रियाएं (Ethical Process) नहीं है। मनुष्य आत्मा में ही ज्ञानत्व, कर्तृत्व और भौक्तृत्व ये तीनों निहित हैं। इसलिए वेद और कुरआन मनुष्य जाति के लिए है न कि पशु और वनस्पति जगत के लिए।
कीट-पतंगे और पशु पक्षी नैसर्गिक जीवन व्यतीत करते हैं। एक वृक्ष और एक पशु को यह विवेक नहीं दिया गया है कि वे इस विशाल ब्रह्मांड में अपने अस्तित्व का कारण तलाश करें। पशुओं के सामने न कोई अतीत होता है न कोई भविष्य। भय, भूख, नींद, मैथुन आदि क्रियाओं के होते हुए भी पशु एक बेफिक्र रचना है, चेतनाहीन कृति है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी तो मनुष्य जीवन की सामग्री मात्र है। इनकी रचना को मनुष्य योनि के पाप-पुण्य से जोड़ना नादानी की बात है।
देखने और सुनने की क्षमता के बावजूद एक बकरी कसाई और चरवाहे में फ़र्क नहीं करती। देखने और सुनने की क्षमता के बावजूद एक गाय मालिक और दुश्मन के खेत में अंतर नहीं करती। इससे सुस्पष्ट है कि पश्वादि में आत्मचेतना नहीं होती। विवेक और विचार नहीं होता। जब पश्वादि में न विवेक है, न विचार है, न कोई आचार संहिता है तो फिर कर्म और कर्मफल कैसा ? विचित्र विडंबना है कि हिंदू धर्म दर्शन ने पेड़-पौधों, पशुओं और मनुष्य को एक ही श्रेणी में रखा है। क्या यह अवधारणा तर्कसंगत और न्यायसंगत हो सकती है कि एक योनि चिंतन और चेतना रखने के बावजूद चिंतनहीन और चेतना विहीन योनि में अपने कर्मो का फल भोगे ? कैसी अजीब धारणा है कि पाप कर्म करें मनुष्य और फल भोगे गधा और विवेकहीन वृक्ष?
यहाँ यह भी विचारणीय है कि दण्ड और पुरस्कार का सीधा संबंध विवेक, विचार और कर्म से है। दूसरी बात बिना पेशी, बिना गवाह, बिना सबूत, बिना प्रतिवादी कैसी अदालत, कैसा न्याय ? एक व्यक्ति को बिना किसी चार्जशीट के अंधा, लंगड़ा, जड़बुद्धि बना दिया जाए या कीट, कृमि, कुत्ता बना दिया जाए या पशु को मनुष्य बना दिया जाए, यह कैसा इंसाफ, कैसा कानून ? क्या इसे कोई कानून कहा जा सकता है ? न्यायसंगत और तर्कसंगत तो यह है कि फल भोगने वाले को सजा या पारितोष का एहसास हो और यह तभी सम्भव है कि जब कर्म करने वाला उसी शरीर व चेतना के साथ फल भोगे, जिस शरीर व चेतना के साथ उसने कर्म किया है।
यहाँ यह भी विचारणीय है कि दण्ड और पुरस्कार का सीधा संबंध विवेक, विचार और कर्म से है। दूसरी बात बिना पेशी, बिना गवाह, बिना सबूत, बिना प्रतिवादी कैसी अदालत, कैसा न्याय ? एक व्यक्ति को बिना किसी चार्जशीट के अंधा, लंगड़ा, जड़बुद्धि बना दिया जाए या कीट, कृमि, कुत्ता बना दिया जाए या पशु को मनुष्य बना दिया जाए, यह कैसा इंसाफ, कैसा कानून ? क्या इसे कोई कानून कहा जा सकता है ? न्यायसंगत और तर्कसंगत तो यह है कि फल भोगने वाले को सजा या पारितोष का एहसास हो और यह तभी सम्भव है कि जब कर्म करने वाला उसी शरीर व चेतना के साथ फल भोगे, जिस शरीर व चेतना के साथ उसने कर्म किया है।
उपर्युक्त तथ्यों और तर्को से सिद्ध हो जाता है कि आवागमनीय पुनर्जन्म की धारणा एक अबौद्धिक और अवैज्ञानिक धारणा है। इस मिथ्या व कपोल-कल्पित मान्यता ने करोड़ों मनुष्यों को जीवन के मूल उद्देश्य से भटका दिया है। यह धारणा मनुष्य जीवन का कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं करती। मनुष्य के सामने कोई उच्च लक्ष्य न हो, कोई दिशा न हो तो वह जाएगा कहाँ ? विचित्र विडंबना है कि जीवन है मगर कोई जीवनोद्देश्य नहीं है। बिना किसी जीवनोद्देश्य के साधना और साधन सब व्यर्थ हो जाता है। यात्रा में हमारे पास कितनी भी सुख-सुविधा, सामग्री, साधन हो, मगर यह पता न हो कि जाना कहाँ है ? हमारी दिशा, हमारी मंजिल, हमारा गंतव्य क्या है तो हम जाएंगे कहाँ ? दिशा और गंतव्य निश्चित हो तभी तो गंतव्य की दिशा की तरफ चला जा सकता है। अगर दिशा का भ्रम हो तो मनुष्य कभी सही दिशा की तरफ नहीं बढ़ सकता। एक व्यक्ति दौड़ा जा रहा है और उसे पता न हो कि किधर और कहाँ जाना है तो क्या लोग उसे बेवकूफ नहीं कहेंगे?
हमारे जीवन में भौतिक कारणों, अकारणों का बड़ा महत्व है। यहाँ किसी का विकलांग, निर्धन, रोगी अथवा स्वस्थ, सुन्दर और धनी होना पिछले कर्मो का प्रतिफल नहीं है। यह विषमता भौतिक, प्राकृतिक और सामाजिक असंतुलन का परिणाम है। कभी चेचक व पोलियों आदि बीमारियों को मनुष्य का भाग्य और पूर्वजन्म का फल समझा जाता था मगर आज वैज्ञानिक प्रयोगों और प्रयासों द्वारा मनुष्य ने इन पर विजय प्राप्त कर ली है। यहाँ के परिणाम किसी पूर्वकृत योनियों के सत्कर्म या पाप कर्म के परिणाम नहीं हैं। यहाँ की विषमता को समझने के लिए हमें सृष्टिकर्ता की योजना को भी समझना होगा।
ब्रह्मांड की विशालता, एक सूत्रता और दिन-रात का प्रत्यावर्तन बता रहा है कि यह सृष्टि किसी तीर-तुक्के की परिणति नहीं है, इसमें स्रष्टा का कोई उच्च प्रयोजन छिपा है। हम इहलोक में देखते हैं कि अक्सर बेइमान, स्वार्थी, धूर्त लोग फल फूल रहे हैं, ईमानदार, गरीब, श्रमजीवी लोग पिस रहे हैं। दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों का फूलना-फलना न्याय और नीति की बात नहीं हो सकती। कुकृत्यों की परिणति सुखदायी कभी नहीं हो सकती। अतः स्पष्ट है कि कुकृत्यों के परिणाम यहाँ प्रकट नहीं हो रहे हैं। न्याय और प्रतिहार के लिए यह संसार अपूर्ण है। बुद्धि की मांग है कि कोई ऐसी जगह हो जहाँ दुष्कर्मी और अत्याचारी व्यक्ति के कर्मों का पूर्ण विवरण मय गवाह व सबूतों के प्रस्तुत हो और पीड़ित व्यक्ति अपनी आंखों के सामने उसे दण्ड और सजा भोगते देखें। वर्तमान लोक में ऐसी न्याय व्यवस्था की कतई कोई सम्भावना नहीं है। अतः पूर्ण और निष्पक्ष न्याय के लिए आवश्यक है कि जब सम्पूर्ण मानवता का कृत्य समाप्त हो जाए तो एक नई दुनिया में हमारा पुनर्जन्म हो अथवा हमें पुनर्जीवन प्राप्त हो। हिंदू मनीषियों ने पुनर्जन्म को गलत अर्थों में परिभाषित किया है। पुनर्जन्म शब्द का अर्थ बार-बार जन्म लेने से कदापि नहीं है। पुनर्जन्म शब्द का अर्थ एक बार न्याय के दिन जन्म लेने से है। हिंदू धर्म ग्रंथों में प्रलय, पितर लोक, परलोक, स्वर्ग, नरक आदि शब्दो का बार-बार प्रयोग उक्त तथ्य की पुष्टि करता है।
यह जगत एक क्रियाकलाप है। तैयारी है, एक दिव्य जीवन के लिए, पारलौकिक जीवन के लिए। सांसारिक अभ्युद्य मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है। लक्ष्य है पारलौकिक जीवन की सफलता। भौतिक सुख-सुविधा सामग्री केवल जरूरत मात्र है। यहाँ जब हम वह कुछ हासिल कर लेते हैं जो हम चाहते हैं, तो हमारे मरने का वक्त करीब आ चुका होता है। हम बिना किसी निर्णय, न्याय, परिणाम के यहाँ से विदा हो जाते हैं। धन, दौलत, बच्चें आदि सब यही रह जाता है। अगर हम यह मानते हैं कि जो कर्म हमने यहाँ किए हैं, उनके परिणाम स्वरूप हम जीव-जन्तु, पेड़- पौधा या मनुष्य बनकर पुनः इहलोक में आ जाएंगे तो यह एक आत्मवंचना (Self Deception) है। हमें इस धारणा की युक्ति-युक्तता पर गहन और गम्भीर चिंतन करना चाहिए। पारलौकिक जीवन की सफलता मानव जीवन का अभीष्ट (Desired) है। यही है मूल वैदिक और कुरआनी अवधारणा और साथ-साथ बौद्धिक और वैज्ञानिक भी।
http://www.islamhinduism.com/hinduism/hindi-articles-hinduism/104-2011-05-18-10-38-19