Saturday, January 29, 2011

बहरहाल आज का दिन एक यादगार दिन है और जो कोई मुझसे कुछ सीखना चाहे, सीख सकता है The inspiration

मेरे प्यारे दोस्तो और विरोधियो ! आज का दिन ‘हमारी वाणी‘ के इतिहास में एक यादगार दिन है। आज का दिन हिंदी ब्लागर्स के लिए भी एक प्रेरणा देने वाला दिन है। आज के दिन आपके भाई अनवर जमाल की 7 पोस्ट्स ‘हमारी वाणी‘ के हॉट बोर्ड पर दिखाई जा रही हैं। इनमें से एक पोस्ट एक समाचार पत्र में भी छप चुकी है जिसका तज़्करा ‘ब्लाग्स इन मीडिया‘ नामक वेबसाइट में भी किया गया और उसे भी ‘हमारी वाणी‘ ने अपने बोर्ड पर जगह दी है। इसके अलावा जनाब डा. पवन कुमार मिश्रा जी ने एक पूरी पोस्ट भी मुझे संबोधित करके ही लिखी है और भाई लोगों में उसे पढ़ने की इतनी ज़्यादा होड़ मची कि ‘हमारी वाणी‘ पर उसके पब्लिश होते ही वह चंद ही मिनटों में हॉट का रूतबा पा गई। लखनऊ ब्लागर्स एसोसिएशन पर भी हमारे सरसों के फूल देखने के लिए बड़े-बड़े ब्लागर्स आए और वंदना जी भी आईं। जिनकी समझ में वह पोस्ट आई, उन्होंने तो उसे सराहा लेकिन जिनकी समझ में वह न आई वे वहां चक्कर खाते देखे गए। कोई तो समझाने से मान गया और कोई समझाने से भी न माना कि यह पोस्ट अपने अंदर उनकी समझदानी के तंग दायरे से अधिक विस्तार रखती है।
एक दो साहब ने हमें समझाया कि देखो कविता में यह होता है और कविता में वह होता है।
अरे हम कहते हैं कि अभी तुमने शायरी और कविता देखी ही कहां है ?
जिस दिन तुम कविता और शायरी की आत्मा को देख लोगे तो वह तुम्हारी बुद्धि से ठीक ऐसे ही परे होगी जैसे कि खुद तुम्हारी आत्मा तुम्हारी बुद्धि के परे है।
डा. श्याम गुप्ता जी हस्बे आदत अपने ऐतराज़ात से बाज़ नहीं आ रहे हैं। उन्हें समझाया तो कहते हैं कि
‘हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन‘
हम कहते हैं कि जिसे खुद अपनी हक़ीक़त ही मालूम न हो, उसे जन्नत की हक़ीक़त क्या मालूम होगी ?
जिसे उर्दू का ही पता न हो तो उसे उर्दू की शायरी का इल्म क्या होगा ?
उर्दू के ज्ञान का हरेक दावेदार आज अपने ज्ञान को और शायरी की समझ को आज़मा सकता है।
इसके लिए आप देखिए मेरे ब्लाग ‘मन की दुनिया पर मेरी एक ख़ास पेशकश।

बहरहाल आज का दिन एक यादगार दिन है और जो कोई मुझसे कुछ सीखना चाहे, सीख सकता है और जो कोई प्रेरणा लेना चाहे वह प्रेरणा ले सकता है।

Friday, January 28, 2011

दारूल उलूम देवबंद में चल रहे संघर्ष का विश्लेषण The fact

http://hamarianjuman.blogspot.com/2009/09/blog-post_3696.html
हिंदी दैनिक हिंदुस्तान के संपादकीय में आज दारूल उलूम देवबंद में चल रहे संघर्ष का विश्लेषण किया गया है। संपादक महोदय की संवेदनाओं को मोहतमिम मौलाना गुलाम मुहम्मद वस्तानवी साहब के साथ देखकर अच्छा लगा। उन्होंने उनके व्यक्तित्व की भी तारीफ़ की और उनकी उन घोषणाओं की भी जिनमें उन्होंने कहा है कि वे मदरसे के पाठ्यक्रम में विज्ञान, इंजीनियरी और चिकित्सा आदि भी शामिल करेंगे। इन घोषणाओं को संपादक महोदय ने उदारवादी और सुधारवादी क़रार दिया जो कि वास्तव में हैं भी और मौलाना वस्तानवी का विरोध करने वालों को उन्होंने पुरातनपंथी और कट्टरवादी क़रार दे दिया और निष्कर्ष यह निकाला कि दारूल उलूम देवबंद में जो संघर्ष फ़िलहाल चल रहा है वह वास्तव में पुरातनपंथियों और सुधारवादियों के बीच चल रहा है।
यह निष्कर्ष सरासर ग़लत है। जो लोग मौलाना वस्तानवी का विरोध कर रहे हैं वे पुरातनपंथी और कट्टर (बुरे अर्थों में) हरगिज़ नहीं हैं। उन्होंने भी दारूल उलूम देवबंद के पाठ्यक्रम में कम्प्यूटर और हिंदी व गणित आदि विषय शामिल किए हैं और हिंदी की भी वही किताब वहां पढ़ाई जाती है जो कि बाज़ार में सामान्य रूप से उपलब्ध है, जिसमें कि राम, सीता और हनुमान की कहानियां लिखी हुई हैं। अगर वे सामान्य अर्थों में कट्टर और पुरातनपंथी होते तो वे ऐसा हरगिज़ न करते या कम से कम वे हिंदी की ऐसी किताब तो चुन ही सकते थे जिसमें कि रामायण की कहानी के बजाय मुसलमान बुजुर्गों के क़िस्से होते। किसी चीज़ को देखे बिना महज़ लिखित सूचनाओं के आधार पर जब निष्कर्ष निकाला जाता है तो वे निष्कर्ष इसी तरह ग़लत होते हैं जैसे कि आज के संपादकीय में निकाला गया है।
जो लोग देवबंद में रहते हैं वे जानते हैं कि देवबंद का एक आलिम घराना संघर्ष का इतिहास रखता है। वह दूसरों से भी लड़ता है और खुद अपनों से भी। उसकी लड़ाई का मक़सद कभी मुसलमानों का व्यापक हित नहीं होता बल्कि यह होता है कि ताक़त की इस कुर्सी पर वह नहीं बल्कि मैं बैठूंगा। वर्तमान संघर्ष के पीछे भी असली वजह कट्टरता और पुरानी सोच नहीं है बल्कि अपनी ताक़त और अपने रूतबे को बनाए रखने की चाहत है। यह संघर्ष पुरातनपंथी सोच और उदारवादी सोच के बीच नहीं है बल्कि दरअस्ल यह संघर्ष दो ऐसे लोगों के दरम्यान है जिनमें से एक आदमी मौलाना वस्तानवी हैं जो मुसलमानों और देशवासियों के व्यापक हितों के लिए सोचते हैं और दूसरा आदमी महज़ अपने कुनबे के हितों के लिए। यह संघर्ष परोपकारी धार्मिक सोच और खुदग़र्ज़ परिवारवादी सोच के दरम्यान है। परिवारवादी खुदग़र्ज़ो के साथ भी वही लोग हैं जो कि उन्हीं जैसे हैं, जिनके लिए इस्लाम और इंसाफ़ के बजाय अपने निजी हित ज़्यादा अहम हैं। ये लोग अक्सर इस्लाम के नाम पर पहले अपने पीछे मुसलमानों की भीड़ इकठ्ठी करते हैं और फिर सियासत के धंधेबाज़ों से उन्हें दिखाकर क़ीमत वसूल करके अपने घर को महल में तब्दील करते रहते हैं और बेचारे मुसलमानों का कोई एक भी मसला ये कभी हल नहीं करते। मुसलमान सोचता है कि ये रहबरी कर रहे हैं जबकि ये रहज़नी कर रहे होते हैं। मुसलमानों की दशा में लगातार बिगाड़ आते चले जाने के असल ज़िम्मेदार यही ग़ैर-ज़िम्मेदार खुदग़र्ज़ हैं। धर्म की आड़ में ये लोग अर्से से जो धंधेबाज़ी करते आए हैं, मौलाना वस्तानवी के आने से उसे ज़बरदस्त ख़तरा पैदा हो गया है। उनका वजूद ही ख़तरे में पड़ गया है। यही वजह है कि वे मौलाना वस्तानवी का विरोध कर रहे हैं और इसके लिए छात्रों को अपना मोहरा बना रहे हैं। वे नहीं चाहते कि दारूल उलूम देवबंद में कोई ऐसा ढर्रा चल पड़े जिसकी वजह से मदरसे के छात्रों  और आम मुसलमानों में दोस्त-दुश्मन और रहबर और रहज़न की तमीज़ पैदा हो जाए और उनके लिए अपनी ग़र्ज़ के लिए उनका इस्तेमाल करना मुश्किल हो जाए।
यही असल वजह है दारूल उलूम देवबंद में जारी मौजूदा संघर्ष की। इस संघर्ष को इसी नज़रिए से देखा जाना चाहिए और उम्मीद करनी चाहिए कि मौलाना वस्तानवी इसमें विजयी रहेंगे क्योंकि एक तो वजह यह है कि उम्मीद हमेशा अच्छी ही रखनी चाहिए और दूसरी बात यह है कि गुजरात के मुसलमान आर्थिक रूप से बहुत मज़बूत हैं और वे आर्थिक रूप से दारूल उलूम देवबंद की बहुत इमदाद करते हैं। उन्हें नज़रअंदाज़ करना या उनके साथ धौंसबाज़ी करना आसान नहीं है, ख़ासकर तब जबकि वे अपने विरोधी की नीयत को भी पहचान चुके हों कि उनके विरोधी की नीयत इस्लाम का हित नहीं है बल्कि खुद अपना निजी हित है। देवबंद की जनता और मीडिया के समर्थन ने भी मौलाना वस्तानवी के विरोधियों की हिम्मत को पस्त करना शुरू कर दिया है। दारूल उलूम देवबंद में बेहतर तब्दीली के लिए मीडिया एक बेहतर रोल अदा कर सकता है और उसे करना भी चाहिए क्योंकि मुसलमानों के साथ साथ अन्य देशवासियों के हित में भी यही है।

Thursday, January 27, 2011

आप मुझे सवाल दीजिए मैं आपको जवाब दूंगा The purification of human heart

मेरे अज़ीज़ भाई हरीश जी ! आज हरेक आदमी एक नक़ाब लगाकर समाज में घूम रहा है। उसके अवचेतन में बहुत कुछ दबा हुआ रहता है और उसका चेतन मन उसके मन की भीतरी पर्त से बहुत सी ऐसी चीज़ों को प्रकट होने से रोकता रहता है जिन्हें ज़ाहिर करने से उसे नुक्सान पहुंचने का डर होता है। समाज में दूसरे समुदायों के साथ मुसलमान भी रहते हैं। आप उनसे मिलते हैं, यह आपकी मजबूरी है। इसके बावजूद सच यह है कि आपके अवचेतन मन की गहराईयों में यह बैठा हुआ है कि अधिकतर मुसलमान बुरे हैं। आपने यह बात ‘डंके की चोट पर‘ कही है। यह बात इतनी ज़्यादा ग़लत और असामाजिक है कि आपके ऐसा कहते ही ‘हमारी वाणी‘ ने क़ानूनी डर से तुरंत अपने बोर्ड से आपकी पोस्ट को ही नहीं हटाया बल्कि आपके ब्लाग का पंजीकरण भी रद्द कर दिया। आप कहने को तो कह गए लेकिन जैसे ही आपका क्रोध शांत हुआ और आपका चेतन मन पुनः सक्रिय हुआ तो उसने आपको बताया कि आप ग़लती कर गए हैं। ग़लती का अहसास होते ही आपने तुरंत माफ़ी भी मांग ली, यह आपकी अच्छाई है, इसीलिए मैं आपको एक अच्छा आदमी कहता हूं। आपके मनोविश्लेषण में मैंने पाया है कि आपके अंदर बेसिकली अंध सांप्रदायिकता नहीं है बल्कि बचपन से आप जिस माहौल में पले हैं, उसमें आपने मुसलमानों के बारे में बहुत सी नेगेटिव बातें सुनी हैं, वे आपके अवचेतन मन में बैठी हुई हैं। आपका मिलना-जुलना मुसलमानों से हुआ तो आपकी कुछ धारणाएं तो भ्रांत साबित हो गई हैं लेकिन तमाम भ्रांतियां आपकी अभी दूर नहीं हुई हैं क्योंकि अभी तक आपको या तो कोई एक भी मुसलमान ऐसा नहीं मिला जो कि आपकी सारी ग़लफ़हमियां दूर कर देता या फिर आपने ही उनमें से किसी के सामने अपने मन के सवाल इस डर से नहीं रखे कि ये लोग ख़ामख्वाह बुरा मान जाएंगे।

कुरआन पढने का सही तरीक़ा
आप कहते हैं कि आपने हिंदी का कुरआन भी पढ़ा है।
अब मैं आपको बताता हूं कि आपने कुरआन कैसे पढ़ा है ?
आप एक मीडियाकर्मी हैं। आए दिन आपके सामने कुरआन की आलोचना से संबंधित बातें गुज़रती रहती हैं। ख़ास तौर से आपके हाथ वह पर्चा लगा जिसमें इंसानियत के दुश्मनों ने कुरआन के बारे में यह अफ़वाह फैला रखी है कि कुरआन हिंदुओं को काफ़िर घोषित करता है, मुसलमानों को हिंदुओं से दोस्ती से रोकता है और कहता है उन्हें जहां पाओ वहीं क़त्ल कर डालो।
आपको यक़ीन नहीं आया कि कोई भी धर्मग्रंथ ऐसी घिनौनी तालीम कैसे दे सकता है ?
आपने कुरआन हासिल किया।
यह तो आपने अच्छा किया लेकिन आपने उसके साथ सबसे ग़लत यह किया कि आपको उसे सिलसिलेवार पूरी तरह पढ़ना चाहिए था और उसके साथ आपको पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब की जीवनी भी पढ़नी चाहिए थी कि उन्होंने कुरआन के हुक्म का पालन खुद कैसे किया और अपने अनुयायियों से अपने जीवन में कैसे कराया ?
आपने ऐसा नहीं किया बल्कि आपने केवल उन पर्चों में छपे हुए आधे-अधूरे उद्धरणों को कुरआन से मिलाया और कुरआन को उठाकर अलमारी में रख दिया। आपने उसमें जगह-जगह निशान भी लगा दिये। आप समझते हैं कि आपने कुरआन पढ़ लिया लेकिन आप खुद बताईये कि क्या वाक़ई इसे कुरआन पढ़ना कहा जा सकता है ?
यही बेढंगापन आदमी को कुरआन के बारे में बदगुमान करता है।
जो सवाल आज आपके मन की गहराईयों में दफ़्न हैं, उनमें से शायद ही कोई बाक़ी बचेगा अगर आप कुरआन को क्रमबद्ध रूप से थोड़ा-थोड़ा शुरू से आखि़र तक पढ़ें और उसे पैग़म्बर साहब के जीवन की घटनाओं से जोड़कर समझने की कोशिश करें। कुरआन का मात्र अनुवाद ही काफ़ी नहीं है बल्कि आपको कुरआन की आयतों का संदर्भ भी जानना होगा कि कौन सी आयतें किन हालात में अवतरित हुईं और उनका पालन कब और कैसे किया गया ?
मैं अपने साथ भेदभाव की शिकायत करता हूं कि मेरे साथ भेदभाव किया जाता है। आप बताईये कि मेरी पोस्ट एलबीए के अध्यक्ष ने डिलीट कर दी, उन्होंने ऐसा क्यों किया ?
उन्होंने मेरी पोस्ट डिलीट कर दी तो क्या आपने उनकी इस ग़लत हरकत पर कोई ऐतराज़ जताया ?
अध्यक्ष जी ने मेरी ऐसी पोस्ट क्यों डिलीट कर दी जिसमें मैंने किसी भी हिंदू भाई को या उनके किसी महापुरूष को या उनकी किसी भी परंपरा को बुरा नहीं कहा, उनके किसी धर्मग्रंथ को बुरा नहीं कहा ?
जबकि आपकी पोस्ट को उन्होंने डिलीट नहीं किया जिसमें आपने अधिकतर मुसलमानों को बुरा बताया, जिसमें आपने कुरआन पर ऐतराज़ जताया और उसकी भाषा इतनी उत्तेजक है कि उसे हमारी वाणी के मार्गदर्शक मंडल ने अपने बोर्ड के डिस्पले से हटा दिया।
आपकी जिस पोस्ट को हमारी वाणी के मार्गदर्शक मंडल ने भी आपत्तिजनक पाया जिसमें कि पांच में से चार भाई हिंदू हैं, उसे आपके अध्यक्ष जी ने क्यों नहीं हटाया ?
और
मेरी अनापत्तिजनक पोस्ट को क्यों हटा दिया ?
मैंने उसे दोबारा फिर एलबीए पर डाला, अगर वह आपत्तिजनक थी तो उसे दोबारा क्यों नहीं हटाया गया ?
मेरे साथ भेदभाव होता रहा और आपने एक बार भी अपनी आपत्ति ज़ाहिर नहीं की। यह है आपका भेदभाव। आपने ही नहीं बल्कि कार्यकारिणी के किसी भी हिंदू भाई ने इस जुल्म के खिलाफ़ आवाज़ नहीं उठाई, क्यों ?
जबकि श्री पवन कुमार मिश्रा जी ने इस डिक्टेटरशिप के प्रति अपना रोष प्रकट किया। क्योंकि उन्होंने इस मामले को न्याय की दृष्टि से देखा। उनका नाम आज तक मेरे कट्टर विरोधियों में ही लिया जाता है। इसके बावजूद उन्होंने वह बात कही जो आप नहीं कह पाए, क्यों ?
जो अनवर जमाल के साथ किया जा रहा है वह हरीश सिंह के साथ नहीं किया जाता , दोनों में ऐसा क्या फ़र्क़ है ?
सिवाय इसके कि अनवर जमाल एक मुसलमान है और हरीश सिंह एक हिन्दू.
और अगर मैं इस बात को बार बार आपके सामने लाता हूँ तो आप कहते हैं कि मेरे ऐसा करने से  आपका दिल दुखी होता है .
सच सुनने से आपका दिल दुखी क्यों होता है?
आप अपने भेदभाव को त्याग दीजिये फिर मैं आपसे आपकी शिकायत नहीं करूँगा और तब आपका दिल भी दुखी नहीं होगा .
अपने दिल को दुःख से बचाना खुद आपके हाथ में है क्योंकि हमारे ऋषियों ने बताया है कि अपने दुखों के पीछे कारण है खुद उसी मनुष्य के पाप जो कि दुखी है .
आप कहते हैं कि आप दुखी हैं तो आप अपने कर्मों का विश्लेषण कीजिये और पापमार्ग छोड़कर प्रायश्चित कीजिये.
आपका दुःख निर्मूल हो जायेगा , मेरी गारंटी है .
आप व्यस्त थे, मैं मान लेता हूं लेकिन हमारे अध्यक्ष जी तो यहां एलबीए की कई पोस्ट्स पर गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं देते घूमते रहे लेकिन मुझे शुभकामनाएं देने नहीं आए, क्यों ?
उनके इस रवैये को दुराग्रहपूर्ण और पक्षपात वाला क्यों न माना जाए ?
जो आदमी सबको समान नज़र से न देख सके वह अध्यक्ष बनने के लायक़ कैसे हो सकता है ?
दूसरों से अपील कर रहे हैं कि कोई काम ऐसा न किया जाए कि दूसरों की भावनाएं आहत हों और खुद हमारी भावनाएं वे आहत कर रहे हैं, क्यों ?
अध्यक्ष वह होता है जिसके पास न्यायदृष्टि हो, सबके लिए प्रेम हो और जो बात वह दूसरों से कहे उसे खुद करके भी दिखाए। ये तीनों ही बातें मुझे तो श्री रवीन्द्र प्रभात जी में नज़र आई नहीं।
ब्लागिंग एक ऐसा मंच है कि यहां आपको हरेक सवाल का सामना करना होगा। या तो सवालों का संतोषजनक उत्तर देना होगा।
जो सवालों से बचना चाहे, वह ब्लागिंग में न आए।
मैं सवालों से बचना नहीं चाहता बल्कि मैं चाहता हूं कि जो सवाल आज तक आप लोगों के मन में दबे पड़े हैं, उन्हें आप मेरे सामने लाईये। इंशा अल्लाह मैं उनका जवाब दूंगा।
आपके हरेक सवाल को मैं अकेला फ़ेस करूंगा और आप सबको जवाब भी दूंगा लेकिन आप सब मिलकर भी मेरे सवालों को न तो फ़ेस कर सकते हैं और न ही उनके जवाब आप दे पाएंगे।
या तो आप एलबीए पर सवाल जवाब चलने दीजिए या फिर उन्हें बंद करना चाहें तो जो भी नियम बनाएं उसे सब पर लागू कीजिए।
मेरे ब्लाग चर्चाशाली मंच पर आईये, यहां आप पर कोई पाबंदी नहीं है। आईये आपके अवचेतन में दबी पड़ी हरेक ग्रंथी से मैं आपको मुक्ति दूंगा।
आप मुझे सवाल दीजिए मैं आपको जवाब दूंगा।

Wednesday, January 26, 2011

दारूल उलूम देवबंद में हंगामा मुसलमानों के भविष्य से खिलवाड़ है The tragedy of muslim ummah

http://www.twocircles.net/2011jan19/deoband_rector_maulana_ghulam_vastanvi_talks_tcn_gujarat.html
किसी भी संस्था या समुदाय की बड़ी हस्ती के निधन के बाद नेतृत्व को लेकर कशमकश शुरू हो जाती है। वही कममकश आजकल देवबंद में भी चल रही है। मौलाना गुलाम मुहम्मद वस्तानवी साहब को मजलिसे शूरा ने आपसी मंत्रणा के बाद दारूल उलूम देवबंद का मोहतमिम नियुक्त कर दिया। वे एक अच्छी शख्सियत के मालिक हैं और समाज सेवा का एक अच्छा इतिहास भी रखते हैं। वे एमबीए भी हैं और मुल्क भर में बहुत शिक्षण संस्थाएं उनकी देखरेख में चल रही हैं। उनके आने से उन लोगों के हितों पर चोट पड़ी है जो अपने पीछे भीड़ दिखाकर आज तक कांग्रेस को लुभाते आए हैं। उनके इशारे पर दारूल उलूम के छात्रों ने जमकर हंगामा काटा और इस्लाम को शर्मसार किया। इस्लाम का अर्थ है शांति। इन लोगों शांति भंग की। इस्लाम इल्म हासिल करने को फ़र्ज़ ठहराता है, एक अज़ीम इबादत बताता है, इंसान की पैदाइश का मक़सद बताता है, उसकी असल मंज़िल तक पहुंचने का ज़रिया बताता है। इन लोगों ने क्लासेज़ बंद कराईं, एक बहुत बड़ा गुनाह किया। इस दीनी यूनिवर्सिटी के चंद छात्रों ने अपने आक़ाओं के इशारे पर वह सबकुछ किया जिसे करने से कुरआन रोकता है, हदीसें रोकती हैं। मुसलमान सूफ़ी रोकते हैं, मुल्क का क़ानून रोकता है, सभ्य समाज रोकता है। लेकिन जो दुनियावी इज़्ज़त और सियासी रूतबे के लिए ही जीते हैं वे कब किसी के रोकने की परवाह करते हैं ?
आदमी की पहचान कभी आम हालत में नहीं होती बल्कि उसकी पहचाान तब होती है जबकि कोई कुरबानी देने का मौक़ा आता है। इस्लाम सरासर कुर्बानी है और जो कुर्बानी देने के लिए तैयार नहीं है, वह मुसलमान भी नहीं है। नगरपालिका की लिस्ट खुदा के दरबार में काम न देगी। मुस्लिम वह है जिसे खुदा मुस्लिम क़रार दे न कि वह जिसे सियासी पार्टियां या दुनिया के लोग मुस्लिम कहें।
जो मुस्लिम ही नहीं हैं हक़ीक़त के ऐतबार से, जो धड़ेबंद और गुटबाज़ हैं, जो अल्लाह की हदों को तोड़ने वाले हैं वे आज मुसलमानों के आक़ा बने हुए हैं। मुसलमानों की कमर पर एक अनचाहे बोझ की तरह लदे हुए हैं। मुसलमानों के मौक़ापरस्त सियासी नेताओं से ज़्यादा ख़तरनाक हैं ये लोग, जो एक महान दीनी संस्था में बेवजह ऊधम मचा रहे हैं।
मौलाना गुलाम मुहम्मद वस्तानवी साहब द्वारा मोदी की तारीफ़ करना मात्र एक बहाना है। और फिर अगर मोदी द्वारा गुजरात के विकास के लिए कुछ अच्छा किया जा रहा है तो इस्लाम कब कहता है कि आप अपने दुश्मन के अच्छे कामों की भी तारीफ़ न करें ?
ऐसा करना तो तास्सुब और सांप्रदायिकता है। मोदी ने अगर पूर्व में कुछ ग़लत किया है तो उसे ग़लत कहा गया है और अगर वे आज कुछ अच्छा कर रहे हैं तो उसे अच्छा ही कहा जाएगा। ग़लत का विरोध किया जाएगा और अच्छे काम में साथ दिया जाएगा। इस्लाम की छवि और क़ौम के भविष्य से खेलने वाले ये शरारती तत्व एक-दो हैं लेकिन बहुत ताक़तवर हैं। इनकी दाढ़ी, टोपी और तक़रीरें लोगों को भ्रम में डाल देती हैं कि ये बहुत दीनदार हैं लेकिन अस्ल में दीनदार वह है जो शांति पसंद है क्योंकि इस्लाम का अर्थ ही शांति है। वास्तव में दीनदार वह है जो कुर्बानी देकर सामूहिक फ़ैसले का सम्मान करे जैसे कि हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने हज़रत अबूबक्र को ख़लीफ़ा तस्लीम करके किया था। सहाबा का आला नमूना सामने होने के बावजूद भी ऊधम वही काट सकता है जो कि उनके तरीक़े पर न हो और जो उनके तरीक़े पर न हो वह राह से हट चुका है, उसे कभी मंज़िल मिलने वाली नहीं है।
देवबंद की इसी संस्था में पहले भी सन् 1980 ई. में मोहतमिम पद के लिए रस्साकशी हो चुकी है जिसने उम्मत को सिर्फ़ और सिर्फ़ नुक्सान ही पहुंचाया है। जब बाड़ ही खेत को खाने लगे तो फिर उस खेत की हिफ़ाज़त कौन करेगा ?
ये लोग कहते हैं कि मुसलमानों को मोदी से ख़तरा है। जबकि ख़तरा ये खुद हैं। मीडिया लोकतंत्र का चैथा खंभा कहलाता है लेकिन आप देवबंद के उर्दू पत्रकारों को देख लीजिए। दो बड़े उर्दू समाचार पत्रों में मौलाना वस्तानवी के नज़रिये को कोई जगह ही नहीं दी जा रही है। पत्रकार भी ज़मीरफ़रोशी पर आमादा हैं। फिर किस बुनियाद पर ये उर्दू मीडिया देशी-विदेशी मीडिया पर आरोप लगाती है कि वे अपने मफ़ाद के लिए वाक़ये की सही तस्वीर पेश नहीं करती।
एक अफ़सोस के सिवा हम कुछ नहीं कर सकते लेकिन बहरहाल सच ज़रूर कह सकते हैं और दुआ कर सकते हैं। अल्लाह ने हम पर लाज़िम भी यही किया है।

Tuesday, January 25, 2011

अपने आप को क़ायदे क़ानून का पाबन्द बनाईये 26th january

 26 जनवरी पर एक ख़ास अपील
कुदरत क़ानून की पाबंद है लेकिन इंसान क़ानून की पाबंदी को अपने लिए लाज़िम नहीं मानता। इंसान जिस चीज़ के बारे में अच्छी तरह जानता है कि वे चीज़ें उसे नुक्सान देंगी। वह उन्हें तब भी इस्तेमाल करता है। गुटखा, तंबाकू और शराब जैसी चीज़ों की गिनती ऐसी ही चीज़ों में होती है। दहेज लेने देने और ब्याज लेने देने को भी इंसान नुक्सानदेह मानता है लेकिन इन जैसी घृणित परंपराओं में भी कोई कमी नहीं आ रही है बल्कि ये रोज़ ब रोज़ बढ़ती ही जा रही हैं। हम अपनी सेहत और अपने समाज के प्रति किसी उसूल को सामूहिक रूप से नहीं अपना पाए हैं। यही ग़ैर ज़िम्मेदारी हमारी क़ानून और प्रशासन व्यवस्था को लेकर है। आये दिन हड़ताल करना, रोड जाम करना, जुलूस निकालना, भड़काऊ भाषण देकर समाज की शांति भंग कर देना और मौक़े पर हालात का जायज़ा लेने गए प्रशासनिक अधिकारियों से दुव्र्यवहार करना ऐसे काम हैं जो मुल्क के क़ानून के खि़लाफ़ भी हैं और इनसे आम आदमी बेहद परेशान हो जाता है और कई बार इनमें बेकसूरों की जान तक चली जाती है।
इस देश में क़ानून को क़ायम करने की ज़िम्मेदारी केवल सरकारी अफ़सरों की ही नहीं है बल्कि आम आदमी की भी है, हरेक नागरिक की है। 26 जनवरी के मौक़े पर इस बार हमें यही सोचना है और खुद को हरेक ऐसे काम से दूर रखना है जो कि मुल्क के क़ानून के खि़लाफ़ हो। मुल्क के हालात बनाने के लिए दूसरों के सुधरने की उम्मीद करने के बजाय आपको खुद के सुधार पर ध्यान देना होगा। इसी तरह अगर हरेक आदमी महज़ केवल एक आदमी को ही, यानि कि खुद अपने आप को ही सुधार ले तो हमारे पूरे मुल्क का सुधार हो जाएगा।

गुस्से को मिटाइये मत बल्कि उस पर क़ाबू पाना सीखिये
समाज में सबके साथ रहना है तो दूसरों की ग़लतियों को नज़रअंदाज़ भी करना पड़ता है और कभी कभी उन्हें ढकना भी पड़ता है। हरेक परिवार अपने सभी सदस्यों को इसी रीति से जोड़ता है। क़स्बे और कॉलोनी के लोग भी इसी उसूल के तहत एक दूसरे से जुड़े रह पाते हैं। ब्लाग जगत भी एक परिवार है और यहां भी इसी उसूल को अपनाया जाना चाहिए।
इस कोशिश के बावजूद कभी कभी मुझे गुस्सा आ जाता है और तब मैं यह सोचता हूं कि आखि़र मुझे गुस्सा आया क्यों ?
हमारे ऋषियों ने जिन पांच महाविकारों को इंसान के लिए सबसे ज़्यादा घातक माना है उनमें से क्रोध भी एक है। हज़रत मुहम्मद साहब स. ने भी उस शख्स को पहलवान बताया है जो कि गुस्से पर क़ाबू पा ले।
इसके बावजूद हम देखते हैं कि कुछ हालात में ऋषियों को भी क्रोध आया है, खुद अंतिम ऋषि हज़रत मुहम्मद साहब स. को भी क्रोधित होते हुए देखा गया है।
हिंदू साहित्य में ऋषियों के चरित्र आज में वैसे शेष नहीं हैं जैसे कि वास्तव में वे पवित्र थे। कल्पना और अतिरंजना का पहलू भी उनमें पाया जाता है लेकिन हदीसों में जहां पैग़म्बर साहब स. के क्रोधित होने का ज़िक्र आया है तो वे तमाम ऐसी घटनाएं हैं जबकि किसी कमज़ोर पर ज़ुल्म किया गया और उसका हक़ अदा करने के बारे में मालिक के हुक्म को भुला दिया गया। उन्होंने अपने लिए कभी क्रोध नहीं किया, खुद पर जुल्म करने वाले दुश्मनों को हमेशा माफ़ किया। अपनी प्यारी बेटी की मौत के ज़िम्मेदारों को भी माफ़ कर दिया। अपने प्यारे चाचा हमज़ा के क़ातिल ‘वहशी‘ को भी माफ़ कर दिया और उनका कलेजा चबाने वाली ‘हिन्दा‘ को भी माफ़ कर और मक्का के उन सभी सरदारों को भी माफ़ कर दिया जिन्होंने उन्हें लगभग ढाई साल के लिए पूरे क़बीले के साथ ‘इब्ने अबी तालिब की घाटी‘ में क़ैद कर दिया था और मक्का के सभी व्यापारियों को उन्हें कपड़ा, भोजन और दवा बेचने पर भी पाबंदी लगा दी थी। ऐसे तमाम जुल्म सहकर भी उन्होंने उनके लिए अपने रब से दुआ की और उन्हें माफ़ कर दिया। इसका मक़सद साफ़ है कि अस्ल उद्देश्य अपना और अपने आस-पास के लोगों का सुधार है। अगर यह मक़सद माफ़ी से हासिल हो तो उन्हें माफ़ किया जाए और अगर उनके जुर्म के प्रति अपना गुस्सा ज़ाहिर करके सुधार की उम्मीद हो तो फिर गुस्सा किया जाए।
जो भी किया जाए उसका अंजाम देख लिया जाए, अपनी नीयत देख ली जाए, संभावित परिस्थितियों का आकलन और पूर्वानुमान कर लिया जाए।
वे आदर्श हैं। उनका अमल एक मिसाल है। उनके अमल को सामने रखकर हम अपने अमल को जांच-परख सकते हैं, उसे सुधार सकते हैं।
मुझे गुस्सा कम आता है लेकिन आता है।
आखि़र आदमी को गुस्सा आता क्यों है ?
हार्वर्ड डिसीज़न लैबोरेट्री की जेनिफ़र लर्नर और उनकी टीम ने गुस्से पर रिसर्च की है। उसके मुताबिक़ हमारे भीतर का गुस्सा कहीं हमें भरोसा दिलाता है कि हम अपने हालात बदल सकते हैं। अपने आने वाले कल को तय सकते हैं। जेनिफ़र का यक़ीन है कि अगर हम अपने गुस्से को सही रास्ता दिखा दें तो ज़िंदगी बदल सकते हैं।
हम अपने गुस्से को लेकर परेशान रहते हैं। अक्सर सोचते हैं कि काश हमें गुस्सा नहीं आता। लेकिन गुस्सा है कि क़ाबू में ही नहीं रहता। गुस्सा आना कोई अनहोनी नहीं है। हमें गुस्सा आता ही तब है, जब ज़िंदगी हमारे मुताबिक़ नहीं चल रही होती। कहीं कोई अधूरापन है, जो हमें भीतर से गुस्सैल बनाता है। दरअस्ल, इसी अधूरेपन को ठीक से समझने की ज़रूरत होती है। अगर हम इसे क़ायदे से समझ लें, तो बात बन जाती है।
जब हमें अधूरेपन का एहसास होता है, तो हम उसे भरने की कोशिश करते हैं। और यही भरने की कोशिश हमें कहीं से कहीं ले जाती है। हम पूरे होकर कहीं नहीं पहुंचते। हम अधूरे होते हैं, तभी कहीं पहुंचने की कसमसाहट होती है। यही कसमसाहट हमें भीतर से गुस्से में भर देती है। उस गुस्से में हम कुछ कर गुज़रने को तैयार हो जाते हैं। हम जमकर अपने पर काम करते हैं। उसे होमवर्क भी कह सकते हैं और धीरे धीरे हम अपनी मंज़िल की ओर बढ़ते चले जाते हैं।
असल में यह गुस्सा एक टॉनिक का काम करता है। हमें भीतर से कुछ करने को झकझोरता है। अगर हमारा गुस्सा हमें कुछ करने को मजबूर करता है, तो वह तो अच्छा है न।
                   (हिन्दुस्तान, 6 जनवरी 2011, पृष्ठ 10)

Monday, January 24, 2011

चर्चाशाली मंच का सदस्य बनने के लिए

eshvani@gmail.com पर अपनी ईमेल आईडी भेजें .
साथ में लिखें कि आप 'चर्चाशाली मंच' में शामिल होना चाहते हैं.
इसके बाद आपको 'चर्चाशाली मंच' की तरफ से एक इन्विटेशन भेजा जायेगा . उसे स्वीकार करते ही आप इस मंच के सदस्य बन जायेंगे और आप इस मच पर अपने ख़यालात पेश कर सकेंगे . हरेक सदस्य किसी भी विषय पर अपने ख़यालात पेश कर सकता है और किसी से भी सहमत या असहमत हो सकता है लेकिन हरेक सदस्य को सामान्य शिष्टाचार और सभ्यता का लिहाज़ रखना होगा . बेहूदा कमेन्ट करना , किसी का मज़ाक़ उड़ाना या हद से बाहर निकलना इस मंच के सदस्यों के लिए पूरी तरह वर्जित है .
आप किसी से सहमत नहीं हैं तो बस आप अपना तर्क देकर अपनी असहमति ज़ाहिर कर दीजिए इतना काफ़ी है .

Sunday, January 23, 2011

एक बेहतर समाज बनाने के लिए To make a better society

चर्चाशाली मंच में हर उस नर नारी का स्वागत है जो कि किसी भी विषय पर चर्चा करने का इच्छुक हो .
आस्तिक नास्तिक हरेक विचारशील सभ्य नागरिक का इस मंच पर स्वागत है .
इसमें जुड़ने के लिए कृपया अपनी ईमेल आई डी पेश भेजें.



क्या सभी धर्म एक ही ईश्वर की पूजा करना बताते हैं ? Some phillosophers are wrong doers.
@ हरीश जी ! इस साझा ब्लाग 'लखनऊ ब्लागर्स एसोसिअशन' पर किसी को भी धर्मग्रंथों को प्रमाण के रूप में पेश करने की अनुमति नहीं होनी चाहिए वरना जो उसके मत से असहमत है वह सवाल ज़रूर उठाएगा और तब जवाब दिया जाना चाहिए ।
अगर आपके पास तार्किक उत्तर नहीं हैं तो फिर पुराणों को विज्ञान का स्रोत बताकर भ्रम न फैलाया जाए ।
सभी धर्म न तो एक ईश्वर की पूजा करना बताते हैं और न ही वे सब के सब मानव जाति के लिए समान रूप से कल्याणकारी हैं ।
धर्म के नाम से जाने जा रहे कितने ही दर्शन तो ईश्वर का वजूद ही नहीं मानते !
पता नहीं आपने कहाँ पढ़ लिया कि सभी धर्म एक ही ईश्वर की पूजा करना बताते हैं ?
सही बात आपको बताई जाती है तो इसे आप शास्त्रार्थ कहने के बजाय विवाद करना समझकर अल्पबुद्धि का परिचय क्यों देते हैं बार बार ?

@ हरीश जी ! जब पोस्ट लेखक डा. श्याम गुप्ता जी को कोई ऐतराज नहीं है हमारे द्वारा सवाल पूछने पर बल्कि वह चाहते हैं कि उनसे सवाल पूछे जाएँ तो आपको क्या ऐतराज है भाई ?
जो सवाल आपसे पूछा है उसका जवाब आपने अभी तक क्यों नहीं दिया है ?

@ गुप्ता जी ! आपने भी नहीं बताया कि भागवत में महात्मा बुद्ध को विष्णु जी का पापावतार क्यों बताया गया है ?
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इस सम्बन्ध में पूरी जानकारी के लिए देखें -


http://lucknowbloggersassociation.blogspot.com/2011/01/blog-post_5530.html