Monday, April 25, 2011

क्या यह संभव है कि भगवान ही न रहे ? God is immortal .


साईं कहते हैं मालिक को और जब सत्य शब्द भी इसके साथ लग जाता है तो यह नाम ईश्वर के लिए विशेष हो जाता है क्योंकि हर चीज़ का सच्चा स्वामी वही एक है जो न तो पैदा होता है और न ही उसे मौत आती है। जन्म-मरण का चक्र उसे बांधता नहीं है।
आज सुबह अख़बार में ख़बर देखी कि सत्य साईं बाबा नहीं रहे।
‘नहीं रहे‘ से क्या मतलब ?
सत्य साईं बाबा खुद को भगवान बताते थे। क्या यह संभव है कि भगवान ही न रहे ?
आदमी की मौत बता देती है कि मरने वाला भगवान और ईश्वर नहीं था लेकिन  जिन लोगों पर अंधश्रृद्धा हावी होती है वे फिर भी नहीं मानते।
मैं इस विषय पर कुछ लिखना चाहता था लेकिन एक लेख पर मेरी नज़र पड़ी तो मैंने मुनासिब समझा कि इसे ज्यों का त्यों आपके सामने पेश कर दूं।

एक मंझोले जादूगर की मौत

भारत के एक मंझोले जादूगर सत्यनारायण राजू उर्फ सत्य साईं बाबा की मौत हो गई। सत्य साईं का प्रभाव 165 देशों में बताया जाता है और इनके ट्रस्ट ने कई क्षेत्रों में जनहित में काम किए हैं। इनके ट्रस्ट की दौलत 40 हजार करोड़ रुपए बताई जाती है।

सत्य साईं बाबा सचमुच में सोने की खान थे। वे कई बार अपने मुंह से सोने की गेंद, चेन और शिवलिंग निकाल चुके थे। इस तरह बाबा स्विस घड़ियों और भभूत की खान भी थे। हालांकि बाबा के ये कारनामे कोई भी औसत जादूगर कर सकता है। मैंने सुना-पढ़ा है कि भारत के महान जादूगर पीसी सरकार ने बाबा के चमत्कारों को साधारण करतब बता कर चुनौती दी थी कि वे साईं उनके सामने अपने चमत्कार दिखाएं और वे खुद वैसे ही जादू दिखाएंगे। हालांकि बाबा ने कभी यह चुनौती स्वीकार नहीं की। अब भला हाथ की सफाई दिखाने वाले जादूगर से एक चमत्कारी बाबा का क्या मुकाबला!


सत्य साईं की मौत पर मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और लाल कृष्ण आडवाणी को बहुत दुख हुआ। सचिन तेंडुलकर को भी। एक न्यूज चैनल दिखा रहा था कि सचिन इस मौत से सदमे में हैं। सचिन ने नाश्ता नहीं किया और होटेल के कमरे में खुद को बंद रखा है और किसी से भी मिलने से इंकार कर दिया। सचिन ने सत्य साईं के खराब स्वास्थ्य के मद्देनजर पहले ही घोषणा की थी कि वह अपना बर्थडे नहीं मनाएंगे। पहले खबर आई थी कि सचिन रविवार का मैच भी नहीं खेलेंगे। मेरे एक दोस्त ने टिप्पणी की कि पिता की मौत के बाद बेहतरीन पारी खेली थी और अब नहीं खेलेंगे! हालांकि बाद में सचिन ने मैच खेला।

सत्य साईं बाबा क्या वाकई नहीं रहे? नहीं, संदेह का कोई मतलब नहीं है लेकिन सत्य साईं ने खुद ही 96 साल की उम्र में शरीर त्यागने की बात कही थी तो बाबा 85 साल की उम्र में ही कैसे चले गए! क्या वह लोगों के कलियुगी व्यवहार से तंग आ गए थे। मतलब ऐसा व्यवहार कि मरने से पहले ही लोग पूछने लगे कि बाबा के मरने के बाद उनकी जायदाद का क्या होगा!

अब इससे भी घोर कलयुग क्या आएगा कि जो बाबा भभूत से पूरी दुनिया का कष्ट दूर करता हो, उसी के इलाज के लिए विदेश से डॉक्टर आएं! हो सकता है कि बाबा की इच्छा ऐसे लोगों के बीच रहने की न रह गई हो या कौन जाने अस्पताल के बिस्तर पर लेटे बाबा ने अपनी भविष्यवाणी में सुधार किया हो लेकिन किसी ने उस पर गौर न किया हो। या क्या जाने बाबा ने 11 साल के लिए समाधि ही ली हो और नादान डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया हो!

खैर सत्य साईं की एक बात मुझे सबसे ज्यादा पसंद आई। उन्होंने कहा था, ‘मैं भगवान हूं, तुम भी भगवान हो। फर्क सिर्फ इतना है कि यह मुझे पता है और 
तुमको नहीं पता है।’ अफसोस कि बाबा की इस साफगोई को लोग समझ नहीं सके।

 से साभार  

Friday, April 15, 2011

क्या हम अहसान फ़रामोश बनकर नहीं रह गए हैं ? Ungratefulness


आज लोगों ने उन मज़लूमों को भुला दिया है, जिन्होंने अंग्रेज़ी राज में 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग में गोलियां खाई थीं और जिनके बदले आज देशवासी चैन से कमा-खा रहे हैं। अन्ना हजारे के आंदोलन को लेकर शोर पुकार मचाने वाले मीडिया को भी इसमें कोई कमाई नज़र न आई तो उसने भी इसे नज़रअंदाज़ करना ही मुनासिब समझा। जिन दरोग़ा और सिपाहियों ने जलियावालां बाग़ के बेकुसूरों पर गोलियां चलाई थीं, वे अंग्रेज़ी राज में भी मौज मारते रहे और उन्हें आज़ादी के बाद भी ससम्मान उनके पदों पर बहाल रखा गया। वे पहले भी मस्त रहे और बाद में भी हराम की खाते रहे जबकि आज़ादी के लिए मरने वाले अपनी जान से गए और उनके बाद उनके परिवार अंग्रेज़ों के जुल्मों के शिकार हो गए। शहीद बर्बाद हो गए और अंग्रेज़ों के पिठ्ठू चिलमचियों के दोनों हाथों में लड्डू रहे। मौक़ापरस्त आज भी मौज मार रहा है और उसूलपसंद नुक्सान पे नुक्सान उठा रहा है।
शासक भी मौक़ापरस्त हैं और इस देश की अधिकतर जनता भी इंसानी उसूलों से ग़ाफ़िल है। इनमें से किसी ने भी जलियांवालां बाग़ के मज़लूमों को याद तक न किया। ऐसी जनता अगर दुखी है तो अपने दुख के पीछे वह खुद है। यह जनता चाहती है कि कोई आए और उसके दुख दूर कर दे। 
जनता ऐसा करिश्मा चाहती है जिससे उसकी तक़दीर चमक जाए और उसे कुछ भी न करना पड़े, उसे कोई कुरबानी भी न देनी पड़े। यहां तक कि नशा, दहेज और फ़िजूलख़र्ची तक भी न छोड़नी पड़े। कोई कुरबानी देनी ही पड़े तो वह कुरबानी भी उसकी जगह कोई और आकर दे दे। 
पहले के लोग फिर भी बेहतर थे, दूसरों की भलाई की ख़ातिर वे अपनी जानें कुरबान कर गए लेकिन अब तो लोग अपने पड़ोसी से उसका हाल चाल पूछने में भी अपने समय की बर्बादी मानते हैं, ऐसे में अपनी जान देने कौन आएगा ?
पिछले शहीदों के साथ जो बर्ताव देश के नेता और आम लोग कर रहे हैं, उसे देखकर किसका दिल चाहेगा कि वह अपनी जान कुरबान करके अपने परिवार को तबाह कर दे और वह भी दूसरों के ऐशो आराम की खातिर ?
शहादत के बाद शहीदों के भटकते परिजनों की व्यथा-कथा अख़बारों में जब-तब छपती ही रहती है।
मरने के बाद अगर सभी लोग मिलकर शहीदों को याद कर भी लें तो भी शहीदों को उनकी याद से क्या फ़ायदा मिलने वाला है ?
उन्हें याद करने से उन्हें तो कोई फ़ायदा नहीं होता लेकिन हमें कई फ़ायदे ज़रूर होते हैं। 
हमें यह फ़ायदा होता है कि हम अहसान फ़रामोशी के ऐब में गिरफ़्तार नहीं हो पाते।
बिना किसी लालच के दूसरों की भलाई के लिए कुरबानी देना एक आला किरदार है। ऐसे आला किरदार के लोगों का चर्चा बार-बार आने से समाज में नेकी और आदर्श का चर्चा होता रहता है और लोग जिस चीज़ को बार बार देखते और सुनते हैं, उसे करते भी हैं। इस तरह बुराई के ख़ात्मे के लिए लड़ने वालों का ज़िक्र नए लड़ने वालों को तैयार करता रहता है और जिस समाज में लगातार ऐसे लोग तैयार होते रहें, वह समाज नैतिक रूप से तबाह होने से बचा रहता है।
आप ग़ौर करेंगे तो और भी बहुत से फ़ायदे आपके सामने आ जाएंगे और उन्हें याद न करने का नुक्सान तो आपके सामने है ही।
आज हमारी जो हालत है, उसका ज़िम्मेदार न तो ईश्वर है, न हमारा भाग्य और न ही कोई विदेशी ताक़त बल्कि इसके ज़िम्मेदार सिर्फ़ और सिर्फ़ हम हैं। जिन लोगों ने हमारे लिए कष्ट उठाए और हमारे लिए अपनी जानें दीं हैं और आज भी हमारे लिए हमारे सैनिक सीमा पर रोज़ाना कुरबानियां दे रहे हैं, उन्हें सम्मान देना, उन्हें याद रखना और उनके परिजनों के लिए अपने दिल में आदर-सम्मान का भाव रखना, यह ऐसी आदतें हैं, जिन्हें हमें सामूहिक रूप से अपने अंदर विकसित करनी होंगी ताकि अगर कोई देश और समाज की बेहतरी के लिए कुछ करना चाहे तो उसके दिल में यह ख़याल न आए कि इन नालायक़ों के लिए ख़ामख्वाह कष्ट उठाने से क्या फ़ायदा ? 

Friday, April 8, 2011

कैसे होता है सकारात्मक लेखन के लिए ब्लॉगर्स का हौसला पस्त ? An Alarming Call

मैं इंसानों के बीच लगभग 40 साल गुज़ार चुका हूं और डेढ़ साल ब्लागर्स के साथ भी कबड्डी से लेकर खो खो और शतरंज तक कई तरह के गेम खेल चुका हूं। इस लंबे अर्से के तजर्बे के बाद मैं कह सकता हूं कि आदमी शांति चाहता है लेकिन उसे मज़ा हंगामों में आता है। ब्लॉग जगत में फैले भ्रष्टाचार और पक्षपात को जड़ से उखाड़ फेंकने की मुहिम में मुझे जिन लोगों की ग़लती को चिन्हित करना पड़ा उनमें से एक मशहूर वकील साहब भी हैं। इसी क्रम में दो पोस्ट में महापत्रकार अजय कुमार झा जी का नाम मजबूरन लेना पड़ा। उन्होंने हमें सलाह दी कि
‘वक्त को समझिए डॉण् साहब ए उर्जा को अगर सही दिशा मिले तो ही वो सृजन करती है।‘
उनकी बात बिल्कुल सही थी, सो हमने फ़ौरन उस पर अमल किया और एक सकारात्मक संदेश देने वाली पोस्ट तैयार करके हिंदी ब्लॉग जगत के सुपुर्द कर दी।
अब सुनिए कि हमारी तीनों पोस्ट के साथ हुआ क्या ?
पहली दोनों पोस्ट्स में से तो एक को 27 पाठकों ने देखा और उस पर 8 कमेंट हुए। दूसरी पोस्ट को 35 लोगों ने देखा और उस पर 7 कमेंट हुए।
तीसरी सकारात्मक और सृजनात्मक पोस्ट को कुल 7 पाठकों ने पढ़ा और उस पर कमेंट शून्य है। अजय कुमार झा जी भी उस पर कमेंट देने नहीं आए, जिन्होंने मुझे ऐसा करने की सलाह दी थी। ईमानदारी का दंभ भरने वाले कुछ गुटबंद ब्लॉगर्स, जो कि आए दिन ऐसी ही सलाहें देते घूमते हैं, उनमें से भी कोई इस पोस्ट पर ‘नाइस पोस्ट‘ लिखने नहीं आया।
यह कैसी दुनिया है कि किसी की टांग खींचो तो तुरंत 50 आदमी आ जाएंगे और कमेंट भी देंगे और सलाह भी देंगे कि आप ऐसा करें और आप वैसा करें और जब आप उनकी सलाह के मुताबिक़ सकारात्मक लेखन करेंगे तो फिर न आपको उनमें से कोई पढ़ने आएगा और न ही आपको कमेंट देने के लिए।
सारी हालत आपके सामने है क्योंकि मेरी तीनों पोस्ट आप हमारी वाणी के बोर्ड पर देख सकते हैं। यह बात सकारात्मक लेखन के लिए ब्लॉगर्स का हौसला पस्त करने के लिए काफ़ी है। 
क्या यह सही हो रहा है ?
आज यह विषय एक गंभीर चिंतन और आत्ममंथन मांगता है, जिसे हिंदी और मानवता के हित में ईमानदारी से और जल्दी से जल्दी किया जाना ज़रूरी है।

1- दो ब्लॉग पर एक ही पोस्ट , अजय जी के साहस को हमारा सलाम मय 11 तोप के गोलों के साथ इसलिए कि शायद सोने वाले जाग जाएं भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ Corruption
2- अजय कुमार झा जी ने सचमुच ही चार चांद लगा दिए हमारी वाणी को - Anwer Jamal
3- बोलने से पहले खूब सोच लेने से आदमी बहुत सी बुराईयों से बच जाता है The Word

Thursday, April 7, 2011

अजय कुमार झा जी ने सचमुच ही चार चांद लगा दिए हमारी वाणी को - Anwer Jamal

हमारी वाणी का दावा है कि वह नियम भंग करने वाले का धर्म, लिंग और उसका प्रभाव नहीं देखती। अगर कोई भी ब्लॉगर उसका नियम भंग करता है तो वह तुरंत कार्रवाई करती है। अगर ऐसा है तो शायद इस बार अपने महापत्रकार अजय कुमार झा जी पर हमारी वाणी कोई कार्रवाई कर बैठे।
आज हमने देखा कि हमारी वाणी के बोर्ड पर एक ही आदमी के तीन फ़ोटो नज़र आ रहे हैं। हमने सोचा कि अब तो यहां सलीम ख़ान भी नहीं हैं और हमने भी अपने पर-पुर्ज़े समेट लिए हैं तब आखि़र कौन है यह तो द्विवेदी जी की हमारी वाणी का सौंदर्य नष्ट करने पर तुला हुआ है। ग़ौर से देखा तो पता चला कि यह तो अपने अजय कुमार झा जी हैं। उन्हें देखकर दिल को तसल्ली हुई कि ये तो ब्राह्मण हैं, इनसे तो हमारी वाणी का सौंदर्य नष्ट होने का सवाल ही नहीं है। अगर ये एक पोस्ट और कर देते तो उल्टे चार चांद और लग जाते। हम अभी यह सोच ही रहे थे कि उनकी एक पोस्ट और नाज़िल हो गई और सचमुच ही चार चांद लगा दिए उन्होंने। हमने जाकर पोस्ट पढ़ी तो दो पोस्ट तो बिल्कुल एक ही हैं। उनके शीर्षक में भी ज़्यादा अंतर नहीं किया गया है।
आदमी क़ाबिल हैं। अन्ना जी का मुददा है। सब कुछ सही लेकिन हमारी वाणी का दावा है कि वह नियम भंग करने वाले पर कार्रवाई करती है और वह धर्म, लिंग और ब्लॉगर के रूतबे को नहीं देखती।
देखते हैं कि अब अजय जी के दो ब्लॉग का निलंबन होता है या फिर एक का या फिर उन्हें मात्र चेतावनी ही देकर छोड़ दिया जाएगा ?
अजय जी की चारों पोस्ट्स के लिंक निम्न हैं। आप भी जाएं और अन्ना जी का समर्थन करें।
1- http://jholtanma-biharibabukahin.blogspot.com/2011/04/2.html
2- http://aajkamudda.blogspot.com/2011/04/1.html
3- http://khabarokikhabar.blogspot.com/2011/04/3.html
4- http://ajaykumarjha1973.blogspot.com/2011/04/blog-post_07.html

.जैसे ही हमारी पोस्ट पब्लिश वैसी ही अजय जी ने पलती मरकर पोस्ट ही बदल डाली .
http://jholtanma-biharibabukahin.blogspot.com/2011/04/2.हटमल
इस लिंक पर जो पोस्ट नज़र आ रही है ठीक वही पोस्ट नज़र आ रही थी निम्न लिंक पर
http://aajkamudda.blogspot.com/2011/04/1.html
लेकिन अब इस पर नज़र आ रही है
'जन लोकपाल बिल क्या है ?'
हम तोप के गोले छोड़ते और सलामी देते ही रह गए उनके साहस को और वह मैदान ही छोड़ भागे .
खैर यह तो नेट है मिटने के बावजूद भी पुराना रिकार्ड देखना मुमकिन है .  

दो ब्लॉग पर एक ही पोस्ट , अजय जी के साहस को हमारा सलाम मय 11 तोप के गोलों के साथ इसलिए कि शायद सोने वाले जाग जाएं भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ Corruption