Friday, April 15, 2011

क्या हम अहसान फ़रामोश बनकर नहीं रह गए हैं ? Ungratefulness


आज लोगों ने उन मज़लूमों को भुला दिया है, जिन्होंने अंग्रेज़ी राज में 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग में गोलियां खाई थीं और जिनके बदले आज देशवासी चैन से कमा-खा रहे हैं। अन्ना हजारे के आंदोलन को लेकर शोर पुकार मचाने वाले मीडिया को भी इसमें कोई कमाई नज़र न आई तो उसने भी इसे नज़रअंदाज़ करना ही मुनासिब समझा। जिन दरोग़ा और सिपाहियों ने जलियावालां बाग़ के बेकुसूरों पर गोलियां चलाई थीं, वे अंग्रेज़ी राज में भी मौज मारते रहे और उन्हें आज़ादी के बाद भी ससम्मान उनके पदों पर बहाल रखा गया। वे पहले भी मस्त रहे और बाद में भी हराम की खाते रहे जबकि आज़ादी के लिए मरने वाले अपनी जान से गए और उनके बाद उनके परिवार अंग्रेज़ों के जुल्मों के शिकार हो गए। शहीद बर्बाद हो गए और अंग्रेज़ों के पिठ्ठू चिलमचियों के दोनों हाथों में लड्डू रहे। मौक़ापरस्त आज भी मौज मार रहा है और उसूलपसंद नुक्सान पे नुक्सान उठा रहा है।
शासक भी मौक़ापरस्त हैं और इस देश की अधिकतर जनता भी इंसानी उसूलों से ग़ाफ़िल है। इनमें से किसी ने भी जलियांवालां बाग़ के मज़लूमों को याद तक न किया। ऐसी जनता अगर दुखी है तो अपने दुख के पीछे वह खुद है। यह जनता चाहती है कि कोई आए और उसके दुख दूर कर दे। 
जनता ऐसा करिश्मा चाहती है जिससे उसकी तक़दीर चमक जाए और उसे कुछ भी न करना पड़े, उसे कोई कुरबानी भी न देनी पड़े। यहां तक कि नशा, दहेज और फ़िजूलख़र्ची तक भी न छोड़नी पड़े। कोई कुरबानी देनी ही पड़े तो वह कुरबानी भी उसकी जगह कोई और आकर दे दे। 
पहले के लोग फिर भी बेहतर थे, दूसरों की भलाई की ख़ातिर वे अपनी जानें कुरबान कर गए लेकिन अब तो लोग अपने पड़ोसी से उसका हाल चाल पूछने में भी अपने समय की बर्बादी मानते हैं, ऐसे में अपनी जान देने कौन आएगा ?
पिछले शहीदों के साथ जो बर्ताव देश के नेता और आम लोग कर रहे हैं, उसे देखकर किसका दिल चाहेगा कि वह अपनी जान कुरबान करके अपने परिवार को तबाह कर दे और वह भी दूसरों के ऐशो आराम की खातिर ?
शहादत के बाद शहीदों के भटकते परिजनों की व्यथा-कथा अख़बारों में जब-तब छपती ही रहती है।
मरने के बाद अगर सभी लोग मिलकर शहीदों को याद कर भी लें तो भी शहीदों को उनकी याद से क्या फ़ायदा मिलने वाला है ?
उन्हें याद करने से उन्हें तो कोई फ़ायदा नहीं होता लेकिन हमें कई फ़ायदे ज़रूर होते हैं। 
हमें यह फ़ायदा होता है कि हम अहसान फ़रामोशी के ऐब में गिरफ़्तार नहीं हो पाते।
बिना किसी लालच के दूसरों की भलाई के लिए कुरबानी देना एक आला किरदार है। ऐसे आला किरदार के लोगों का चर्चा बार-बार आने से समाज में नेकी और आदर्श का चर्चा होता रहता है और लोग जिस चीज़ को बार बार देखते और सुनते हैं, उसे करते भी हैं। इस तरह बुराई के ख़ात्मे के लिए लड़ने वालों का ज़िक्र नए लड़ने वालों को तैयार करता रहता है और जिस समाज में लगातार ऐसे लोग तैयार होते रहें, वह समाज नैतिक रूप से तबाह होने से बचा रहता है।
आप ग़ौर करेंगे तो और भी बहुत से फ़ायदे आपके सामने आ जाएंगे और उन्हें याद न करने का नुक्सान तो आपके सामने है ही।
आज हमारी जो हालत है, उसका ज़िम्मेदार न तो ईश्वर है, न हमारा भाग्य और न ही कोई विदेशी ताक़त बल्कि इसके ज़िम्मेदार सिर्फ़ और सिर्फ़ हम हैं। जिन लोगों ने हमारे लिए कष्ट उठाए और हमारे लिए अपनी जानें दीं हैं और आज भी हमारे लिए हमारे सैनिक सीमा पर रोज़ाना कुरबानियां दे रहे हैं, उन्हें सम्मान देना, उन्हें याद रखना और उनके परिजनों के लिए अपने दिल में आदर-सम्मान का भाव रखना, यह ऐसी आदतें हैं, जिन्हें हमें सामूहिक रूप से अपने अंदर विकसित करनी होंगी ताकि अगर कोई देश और समाज की बेहतरी के लिए कुछ करना चाहे तो उसके दिल में यह ख़याल न आए कि इन नालायक़ों के लिए ख़ामख्वाह कष्ट उठाने से क्या फ़ायदा ?